२२६ श्रीशिवस्तोत्रावली देह एव जेडत्वाद्रिकु - पर्वतदरीगृहं तत्र निकूजत:- उत्कन्दतो जीवान् — प्राणिनो जीवयति; जीवतां लम्भयति यः । पर्वतगुहायां च निकूजन्तो जीवजीवाख्याः पक्षिणो भवन्ति - इत्यनुरणनशक्तचा क्षिप्तोऽ- र्थोऽपि । अपि च सतां - भक्तानां मानसं चित्तमेव निर्मलत्वादिधर्म- त्वाद्वयोम, तत्र विलसति तच्छीलः, वरसारसः- परमात्मा राजहंस, मानसे सरसि शोभमानो व्योमचारी च भवति ।। १६ ।। जय जाम्बूनदोदग्रघातूद्भवगिरीश्वर । जय पापिषु निन्दोल्कापातनोत्पातचंन्द्रमः ॥२०॥ जाम्बूनद- = सोने से उदग्र = भरपूर धातु = ( तथा अन्य ) धातुओं के उद्भव- = उत्पत्ति स्थान गिरीश्वर = गिरि-राज, सुमेरु पर्वत के स्वामी, ( सुमेरु, मेरु - धामा, गिरीन्द्र ) ! जय - जय हो । पापिषु = पापी लोगों पर ww निन्दा = () निन्दा रूपिणी उल्का- = उल्का के पातन- = गिरने पर उत्पात चन्द्रमः = ( उनके लिये ) उत्पात - चन्द्रमा अर्थात अशुभ- सूचक चन्द्रमा ( इन्दु शेखर ) !
- जय = आपकी जय हो ॥ २० ॥
- १ ख० पु० जडत्वादेरद्रिकुञ्जम् - इति पाठः । २ ग० पु० क्रन्दतो – इति पाठः । ३ ग० पु० विलसन्— इति पाठः । ४ ख० पु० परमात्मराजहंसश्च – इति पाठः । ५ ख० पु० चन्द्रमाः - इति पाठः । स्वभाव से ही आनन्द स्वरूप
- ( क ) [ उत्तरार्ध-भावार्थ ] - हे चन्द्रमौलि ! आप चन्द्रमा की तरह
बोदित करने वाले हैं । किन्तु जब कोई ज्ञान से प्रेरित होकर श्रापकी निन्दा करने लगता है, तो उसके लिये आप अशुभ-सूचक अर्थात आपत्ति का कारण बनते हैं । ( ख ) 'सुमेरु' शिव जी का नाम है । इसके अतिरिक्त एक बहुत बड़े पर्वत का नाम है । इसे गिरिं-राज अर्थात पर्वतों का राजा कहते हैं । यह सोने का कहा गया है। श्रीमद्भागवत में इसका सविस्तर वर्णन दिया गया है ।