पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् तवेश भक्तरर्चायां दैन्यांशं द्वयसंश्रयम् । विलुप्यास्वादयन्त्येके ईश = हे प्रभु !. तव = आप की भक्ति अर्चायां = पूजा के संबन्ध में भक्तः = ( जो आपकी ) ( अर्थात् सेवा है, उसकी ) द्वय-संश्रयं = द्वैत पर आश्रित ( अर्थात् भेद-प्रथा के कारण होने वाली ) दैन्यांशम् = ज़रा सी दोनता को ( अपि = भी ) २५७ वपुरच्छं सुधामयम् ॥ १३ ॥ विलुप्य = = नष्ट कर के एके = कई (अद्वैत-भक्ति-शाली जन ) - ( तव = आपके ) अच्छे = निर्मल ( च = तथा ) सुधामयं = ( आनन्द - रस अमृत से भरे हुए वपुः = स्वरूप का आस्वादयन्ति = चमत्कार - रूपी ) अर्थात् साक्षात्कार करते हैं ॥ १३ ॥ तवार्चायां प्राग्व्याख्यातायां या भक्तिः - सेवा, तस्याः द्वयसंश्रयं - भेदंसंबद्धं दैन्यांशं—दीनतालेशमपि विलुप्य-वा, एके- केचिदेव. भेदविगलनाद् अच्छं – निर्मलं, अत एव सुधामयम् — आनन्दरससारं वपुः— स्वरूपम् आस्वादयन्ति - चमत्कुर्वन्ति । दैन्यांशम्-इत्यत्रायमाशयः द्वैतभक्तेरद्वैत भक्ते शिवप्राप्तिर्भवत्येव किन्त्वद्वैतभक्तिः सद्यः समावेशमयी द्वैत भक्तिस्त्वतथात्वाच्छिवताकाङ्क्षामयी ॥ १३ ॥ भ्रान्तास्तीर्थदृशो भिन्ना भ्रान्तेरेव हि भिन्नता । निष्प्रतिद्वन्द्वि वस्त्वेकं भक्तानां त्वं तु राजसे ॥१४॥
- भावार्थ – हे प्रभु ! द्वैत- भक्त और अद्वैत-
भक्त - इन दोनों को तो आप की प्राप्ति होती ही है, किन्तु अद्वैत-भक्त को समावेश द्वारा तुरन्त आप के स्वरूप का साक्षात्कार प्राप्त होता है । द्वैत-भक्त तो ऐसा कर ही नहीं सकता, अतः उसे कुछ समय तक शिवता अर्थात् आप के साथ एकात्मता की लालसा ही बनी रहती है, अर्थात् उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है और इसी लिए वह दोन बना रहता है ॥ १३ ॥ १ ख० पु० भेदसंश्रयम् - इति पाठः । २ घ० पु० तद्वदेव – इति पाठः ।