छाया- = छाया से शीतले = शीतल ( अर्थात् भेद-प्रथा - त्मक सन्ताप को दूर करने वाले ) निजात्मनि = स्वात्म रूपी (चित्स्वरूप ) के त्वद् - = महा- आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् = विशाल महामन्त्रः- परीवाग्रूपः शुद्धाहंविमर्श एव शक्तिशाखाशतैः प्रसृत- त्वात् तरुस्तस्य छायया - कान्त्या शीतले-भेदसन्तापहारिणि, त्वन्महा- वने- त्वमेव चिढ़ात्मा महावनं - विपुलं विश्रांतिस्थानं तत्र, निजात्मनि- स्वस्वभावे, नाथ सदा तव पूजक:- त्वदर्चापरो वयं – स्थितिं बनीयाम् ।। १० ।। प्रतिवस्तु समस्तजीवतः नाथ = हे स्वामी ! - यथा = जिस प्रकार ३१३ वने [ = वन में ( अर्थात् विश्रांति स्थान में) सदा = सदा तव = आपकी पूजक: : = पूजा में- ( सन् = लगा हुआ ) वसेयम् = रहा करूं ॥ १० ॥ = प्रतिभासि प्रतिभामयो यथा । मम नाथ तथा पुरः प्रथां व्रज नेत्रत्रयशूलशोभितः ॥ १९ ॥ समस्त- सभी जीवतः = प्राणियों को - - प्रतिवस्तु = प्रत्येक वस्तु में ( त्वं = श्राप ) प्रतिभा मयः = चित् स्वरूप के रूप में प्रतिभासि = दिखाई देते हैं, (अर्थात् न पहचाने जाते हुए भी वास्तव में विराजमान होते हैं), - तथा - उसा प्रकार मम = मुझ ( दासस्य = दास के ) पुरः = सामने ( त्वं = आप ) नेत्र-त्रय - = तीनों नेत्रों - - शूल- = तथा त्रिशूल से शोभितः ( सन् ) = सुशोभित होकर ( अर्थात् असाधारण अभिज्ञान से पूर्णरूप में पहचाने जाते हुए ) प्रथां व्रज = प्रकट हो जायें ॥ ११ ॥ १ ख० पु० परवाप्रपः - इति पाठः । २ ख० पु० चिदानन्दात्मा - इति पाठः । -
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