आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् खरनिषेधखदामृतपूरणो- च्छलितधौत विकल्पमलस्य मे । दलितदुर्जयसंशयवैरिण- स्त्वदवलोकनमस्तु निरन्तरम् ॥ १९ ॥ ( शम्भो = हे महादेव ! ) — के स्वर - निषेध- खदा- अमृत पूरण- उच्छलित · धौत = ( स्वरूप को ) छुपा ( भेद-प्रथा रूपा ) को ( परमानन्द - रूपी ) लबालब भर देने से धो डाला गया हो ( अर्थात् नष्ट किया गया हो ) रखने वाली भयानक खाई अमृत से विकल्प- विकल्प रूपी मलस्य = मल जिस का = दलित - = तथा पीसा गया हो (अर्थात् नष्ट किया गया हो ) नाथ = हे स्वामी ! ( त्वं तावत् = - . दुर्जय संशय- पहले ) = अजेय ३२१ - शंका रूपी वैरिणः = शत्रु जिस का, ऐसे मे = मुझ को - खरा - विषमा या निषेधखदा - त्वदुख्यातिदरी, तस्या अमृतेन - त्वदद्वयपीयूषेण यत्पूरणं, तेनोच्छलितम्- उत्प्लावितमत एव धौतं विकल्पमलं यस्य तस्य, तथा दलितः- चूर्णितो दुर्जयः संशय एब वैरी - रिपुर्येन तादृशः सतो मम त्वदवलोकनं - चिघनत्वदात्मस्फुरणं, निरन्तरं – घनमस्तु ॥ १६ ॥ त्वदू- = आप का अवलोकनं = दर्शन ( अर्थात् आप चित्स्वरूप का साक्षात्कार ) निरन्तरम् = लगातार (समाधि और व्युत्थान, दोनों अवस्थाओं में) अस्तु = प्राप्त होता रहे ॥ १९ ॥ स्फुटमाविश मामथाविशेयं सततं नाथ भवन्तमस्मि यस्मात् । रभसेन वपुस्तवैव साक्षा- त्परमासत्तिगतः समर्चयेयम् ॥ २० ॥ स्फुटं = ( गुप्त रूप में नहीं, वरन् ) प्रकट रूप में
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