पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/३४३

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  • अमृत- = अमृत की

पूरैः = धाराओं से त्वदू- = आपके अविभेद- = अद्वयानन्द रूपी विमोक्ष- = मोक्ष के अख्याति = अप्रथनात्मक दूर = गहरे उद्योतनाभिधानमेकोनविंशं स्तोत्रम् नाथ = हे प्रभु ! मे = मेरा मनः = मन अद्यापि = विवराणि = रन्ध्रों को (अर्थात् त्वदविभेद् एव विमोक्षः - भेदबन्धापगमः | तस्य अख्याति:- अप्रथा, तदीयानि दूराणि विवराणि - गहनान्याकाङ्क्षामयानि गर्तानि, कर्हि - कदा मे ध्यातमात्रमुदितं - चिन्तनानन्तरमेव विकसितं सत् तव संबन्धि रूपं कर्तृ, सदा परमामृतपूरै :- आनन्दविसरैः, पूरयेत् - आप्लावयेत् ।। ७ ।। - भीभी (बार- आनन्द को छुपा रखने वाली अन्य सांसारिक इच्छाओं को ) = कब कर्हि त्वदीयानुत्तररसासङ्गसन्त्यक्तचापलम् । नाद्यापि मे मनो नाथ कर्हि स्यादस्तु शीघ्रतः ॥८॥ ३२९ सदा सदा के लिए - पूरयेत् = प्लावित करेगा (अर्थात् डुबा देगा ) ! ॥ ७ ॥ बार समावेश का आनन्द लूटने पर भी ) त्वदीय- = आप के अनुत्तर = अलौकिक

  • सारांश -

हे प्रभु ! सांसारिक इच्छाएँ जब तब मेरे हृदय पर अधिकार जमा कर इसे अद्वयानन्द से वंचित रखती हैं। अतः मेरी लालसा है कि मेरे ध्यान करते ही आपका स्वरूप चमक उठे और आनन्द अमृत की धारा से उन इच्छाओं को प्रवाहित करें, अर्थात् उनको समूल तहस नहस कर डाले ॥ ७ ॥ १ क० पु० मोक्षः - इति पाठः । २ ग० पु० चिन्तासमनन्तरमेव – इति पाठः । ३ ख० ५० तत् — इति पाठः ।