लगा। यह देख कर इस शास्त्र के मूल गुरु भगवान् शंकर के हृदय में दया भाव उमड़ आया। वै 'श्रीकंठ' के रूप में उत्तराखण्ड में स्थित कैलास पर्वत पर घूमते-घामते नीचे उतर आए और दुर्वासा नामक ऋषि को यों आदेश दिया-'तुम शैवागम का पुनरुद्धार करो, जिस से इस का प्रचार सुचारु रूप में चलता रहे ।' भगवान् के आदेश को पा कर महर्षि दुर्वासा ने त्र्यम्बकादित्य नामक एक मानसिक पुत्र को उत्पन्न किया और उसे अद्वैत-शैव-दर्शन का उपदेश दिया । त्र्यम्बकादित्य त्र्यम्बक नामक गुफा में चला गया और वहां त्र्यम्बक नामक एक मानसिक पुत्र को जन्म दिया। उस का पुत्र भी सिद्ध पुरुष बन गया और अपने मानसिक पुत्र को उपदेश दे कर स्वयं आकाश-मण्डल में अन्तर्हित हो गया। इस प्रकार मानसिक पुत्र उत्पन्न कर के उसे ज्ञानोपदेश देने का क्रम चौदह पीढ़ियों तक जारी रहा। ये चौदह सिद्ध अन्तर्मुख अवस्था में ही रह कर शैव-दर्शन का प्रचार करते रहे। इस परम्परा का पन्द्रहवां सिद्ध भी इस अद्वैत शास्त्र का प्रकाण्ड पण्डित बन गया, पर किसी अंश में बहिर्मुख होने के कारण अपने पूर्वजों की भाँति योग-बल से मानसिक पुत्र को जन्म देने में असमर्थ रहा। लौकिक व्यवहार करते करते एक बार उसकी दृष्टि एक ऐसी ब्राह्मण कन्या पर पड़ी, जो सर्व-गुण-सम्पन्न तथा शुभ लक्षणों वाली थी। वह उस के माता-पिता के पास गया और उन से उस के विषय में प्रार्थना की। उन के स्वीकार करने पर उस ने उस के साथ ब्राह्म रीति से विवाह किया और उसे अपने घर ले आया। इस ( पन्द्रहर्व सिद्ध ) से संगमादित्य नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। एक बार घूमते घामते संगमादित्य शारदा-देश (कश्मीर) में पहुँचा। यहां कदाचित् इसके प्राकृतिक सौंदर्य तथा मनोहर जलवायु को देख कर इस पर मुग्ध हुआ अथवा इस देश को शारदा ( सरस्वती) का कृपापात्र समझ कर इससे आकृष्ट हुआ और स्थायी रूप से यहीं रहने लगा। संगमादित्य का पुत्र वर्षादित्य था। वर्षादित्य के पुत्र का नाम अरुणादित्य और उस के पुत्र का नाम आनन्द था। आचार्य आनन्द भी अपने पूर्वजों की भाँति अद्वैत-शैव-दर्शन का प्रकाण्ड पण्डित था। आचार्य श्री उत्पल देव जी के गुरुदेव श्राचार्य सोमानन्द जी इन्हीं प्राचार्य आनन्द के सुपुत्र थे।
श्रीमान् आचार्य अभिनव गुप्त जी ने श्रीतन्त्रालोक के छत्तीसवें आह्निक में उपर्युक्त वर्णन में एक और विशेष बात का उल्लेख किया है। उस के