पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/७

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अनुसार महर्षि दुर्वासा ने अपने योग-बल से तीन मानसिक पुत्रों को जन्म दिया और उन्हें इस 'शैव-सिद्धान्त' का उपदेश किया। उसने अद्वैत-शैव- शास्त्र का उपदेश अपने पहले पुत्र त्र्यम्बक नाथ को, द्वैत-शैव-शास्त्र का ज्ञान दूसरे पुत्र आमर्दक नाथ को और द्वैताद्वैत-शैव-शास्त्र की शिक्षा तीसरे पुत्र श्रीनाथ को दी। कालान्तर में यही तीन आचार्य क्रम से शैव-दर्शन की तीन शाखाओं के प्रवर्तक माने जाने लगे। श्री त्र्यम्बक नाथ ने एक मानसिक पुत्री को उत्पन्न किया, जो अर्ध-त्र्यम्बक शाखा की प्रवर्तिका मानी जाती है। इस प्रकार संकलन-रूप में शैव-दर्शन साढ़े तीन शाखाओं में विभक्त हुआ।

 ऊपर जो कुछ कहा गया है, उससे यही सिद्ध होता है कि भगवान् दुर्वासा से लेकर आचार्य श्री सोमानन्द के समय तक शैव-दर्शन के पठन- पाठन का प्रचार केवल मौखिक रूप में और वंश-परंपरा द्वारा होता रहा । श्री सोमानन्द जी ने इस परंपरा की दिशा को बदल दिया। उन्होंने जहां शैव-दर्शन के मुख्य सिद्धान्तों के विषय पर 'शिव-दृष्टि' नामक पहला ग्रन्थ लिख कर शैव-दर्शन-साहित्य का सूत्रपात किया, वहां अपने शिष्य श्री उत्पल देव जी को इस शास्त्र की शिक्षा-दीक्षा दे कर शिष्य-परंपरा द्वारा इस शास्त्र के पठन-पाठन के प्रचार की प्रणाली को जन्म दिया। इस शिष्य- परंपरा के पहले प्राचार्य श्री उत्पल देव जी थे । अब ये शैव-प्राचार्य शैव- दर्शन के मूल सिद्धान्तों के विषय पर स्वतंत्र रूप में मौलिक ग्रन्थों की रचना करने लगे और इसके साथ-साथ अपने पूर्ववती प्राचार्यों, विशेषतः अपने गुरुओं की मौलिक कृतियों पर टीकायें ( वृत्तियां आदि ) लिखने लगे। इस प्रकार शैव-शास्त्र का वह विशाल साहित्य उत्पन्न हुआ, जो अब उपलब्ध है और जिसके अधिकांश ग्रन्थों को जम्मू व कश्मीर सरकार के रिसर्च-कार्यालय ने प्रकाशित किया है। कहना न होगा कि यह साहित्य इतना उच्च कोटि का, महत्त्वपूर्ण तथा विशाल है कि यह संसार के किसी भी उन्नत देश के गर्व और गौरव का कारण हो सकता है। तभी तो प्राचीन काल से हमारे देश का नाम ही शारदा-देश पड़ गया है।

 जैसे कि उपर कहा जा चुका है, श्री उत्पल देव जी का गुरु आचार्य सोमानन्द था । इन के पिता जी का नाम 'उदयाकर' तथा इन के सुपुत्र का नाम 'विभ्रमाकर' था। इन्हों ने कश्मीर के किस विशेष नगर या स्थान को अपने जन्म से पवित्र और सुशोभित किया था, इस बात के जानने का