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श्रीविष्णुगीता।

विषय

पृष्ठाङ्क महान कार्यकलाप, धर्म कर्म और यज्ञका तादात्म्य, सहज

और जैवकर्म, सृष्टिकी उत्पत्तिके साथ यज्ञका सम्बन्ध और उसके द्वारा देवता और अन्य जीवोंकी परस्पर तुष्टि, यज्ञका ब्रह्मसे सम्बन्ध और उसके भेद ... ... ... ... २७-३२ व (७) ज्ञानयज्ञका श्रेष्ठत्व, स्वर्गसे पुनरावृत्ति, भगवान् का यज्ञेश्वरत्व ... ................. ... . ३२-३३ (८) दैवी सम्पत्ति और आसुरी सम्पत्तिका विस्तृत वर्णन और उसका फल, आसुरसर्गका अति विस्तृत वर्णन और उसका फल, कामक्रोधलोभरूप नरकद्वार,कार्याकार्यविचारमें शास्त्रोंकाही प्रामाण्य, दैवी भावकी रक्षाके लिये वर्णधर्मकी सृष्टि और उसका लक्षण, चतुर्वर्णोका कर्म,स्वस्वकर्माचरण से सिद्धि और कम्मौका सदोषत्व. . ३३-३६ (९) विशिष्टचेतन जीवोंके चार भेद और उनके लक्षण, कृतविद्योंके आदर्श भगवान् हैं, उनकी ओर दृष्टि रखनेसे । पतन और भय नहीं होता है, आत्मोन्नति होती है .. ३६-४० तृतीय अध्याय । गुणभावविज्ञानयोगवर्णन .......४२-६८ देवताओंकी जिज्ञासा। (१) त्रिगुणोंका स्वरूप और गुणभेदसे धर्माङ्ग और आचारोंके लक्षणविषयिणी जिज्ञासा ................४१ महाविष्णुकी आज्ञा । (२) अव्यक्त दशासे व्यक्त दशा होने के समय त्रिगुणमयी प्रकृतिका आविर्भाव, त्रिगुणों में स्वभावतः परिणाम उत्पन्न होना, त्रिगुणोंके लक्षण और उनका जीवोंको बन्धन करने का प्रकार, एकके प्राधान्यमें दूसरे दोनोकी अप्रधानता, गुणोदयके लक्षण और उस अवस्थामें शरीरत्यागका फल, गुणोंका फल और उनके द्वारा गति, गुणोंका कर्मकतृत्व,