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श्रीविष्णुगीता।


बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ २१ ॥
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वानुवर्तन्ते साधकाः सर्वशः सुराः ! ॥ २२ ॥
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं लोके साधकानां सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ २३ ॥ तबुद्धयस्तदात्मानस्तनिष्ठास्तत्परायणाः ।।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ २४॥
मम प्राप्त्यै सदा भक्ता आश्रयन्ति दिवौकसः !।
भक्तिं भवमयीं योगं क्रियात्मकमपि ध्रुवम् ॥ २५ ॥
वैध्या रागात्मिकाया वै भक्तेराधिगमो मतः ।
वैधी सा साधनाल्लभ्या श्रीगुरोरुपदेशतः ॥ २६ ॥
यदा चित्तलयं कर्तुमभ्यासो मयि जायते ।


होता है ॥ २०॥ अनुराग, भय और क्रोधशून्य एवं मुझमें एकाग्रचित्त, मेरे आश्रित और ज्ञानरूपी तपसे पवित्र अनेक साधक मेरे भावको प्राप्त हुए हैं अर्थात् मुक्त होगये हैं ॥ २१॥ जो मुझको जिस भावसे आश्रय करते हैं उनको मैं उसी भावसे आश्रयमें रखता हूं अर्थात् फल प्रदान करता हूँ। हे देवगण ! साधकलोग सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुसरण करते हैं ॥ २२॥ कर्मकी सिद्धि चाहनेवाले साधक देवताओंकी उपासना करते हैं। इस संसारमें साधकोंको कर्मसम्बन्धीय सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है ॥ २३ ॥ परमात्मामें जिनके बुद्धि और चित्त लगे हुए हैं, उन्हीं में जिनकी निष्ठा है और उन्हीमें जो परायण हैं एवं ज्ञानसे जिनके पाप नष्ट होगये हैं वे मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ २४॥ हे देवतागण ! मुझको प्राप्त करनेके लिये उपासक सदा भावमयी भक्ति और क्रियामय योगका भी आश्रय अवश्य लेते हैं ॥ २५ ॥ वैधी भक्तिसे ही रागात्मिका भक्तिकी प्राप्ति मानीगई है, वह वैधी भक्ति श्रीगुरूपदेशके अनुसार साधन करनेसे प्राप्त होती है ॥ २६ ॥ जब मुझमें चित्त लीन करने