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श्रीविष्णुगीता।


नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ३८ ॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । ।
उपविश्यासने युज्यायोगमात्मविशुद्धये ॥ ३९ ॥
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ ४०॥
प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः।।
मनः संयम्य मञ्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ ४१॥
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतमानसः।
शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।। ४२ ॥
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चामराः ! ॥ ४३ ॥ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।


क्रियाको वशीभूत करते हुए उपासकको चित्तशुद्धिके निमित्त योगाभ्यास करना उचित है ॥३८-३६॥ देहका मध्यभाग मस्तक और ग्रीवादेश सरल और निश्चलभावसे रखकर स्थिर होकर अपनी नासिकाके अग्रभागको अवलोकन करते हुए एवं अन्य ओरका देखना छोड़कर प्रशान्तचित्त भयरहित और ब्रह्मचर्यमें अवस्थित होकर मनको दमन करते हुए मुझमें ही चित्त समर्पण करके मत्परायण होते हुए युक्त होकर अवस्थान करना उचित है ॥ ४०-४१॥ उक्त रूपसे सदा मनको दमन करनेवाला संयतचित् योगी निर्वाणमुक्ति देनेवाली एवं मुझमें रहनेवाली शान्तिको प्राप्त करता है ॥ ४२ ॥ परन्तु हे देवतागण ! अधिक भोजन करनेवालेको योगकी प्राप्ति नहीं होती और न निरन्तर उपवास करनेवालेको ही योगकी प्राप्ति होती है, उसी प्रकार बहुत सोनेवालेको भी योगकी प्राप्ति नहीं होती है और न बहुत जागनेवालेको ही योगकी प्राप्ति होती है॥४३॥ जो साधक नियमित आहार और विहार करते हैं और कर्म्मोको भी