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श्रीविष्णुगीता।


अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ ७७ ॥
यावत्संजायते किञ्चित् सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तद्वित्त विबुधर्षभाः ! ॥ ७८ ॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ ७९ ।।.
समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।।
नहिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ ८०॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः । यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्याति ॥ ८१॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ८२ ॥


इस प्रकार उत्पन्न होते हैं सो जानो ॥ ७॥ सव कर्मयोग द्वारा आत्माको देखते है ॥ ७६ ॥ किन्तु अन्य कोई कोई कोई इस प्रकारसे अर्थात् साङ्ख्ययोगादिके द्वारा आत्माको नहीं हुए अन्य अर्थात् गुरु आचार्य आदिसे सुनकर उपासना करते हैं वेभी श्रुतिपरायण होकर मृत्युका अतिक्रमण करते हैं, हे देवश्रेष्ठो ! जो कुछ स्थावर या जङ्गम जीव उत्पन्न होते हैं सब ज्ञेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे उत्पन्न होते हैं सो जानो।सब जीवोमें समभावसे अवस्थित और सब जीवोंके विनाश होते रहने पर भी अविनाशी जो परमात्मा है उनको जो देखता है वही देखता है।81।क्योंकि सब भूतो में समभावसे अवस्थित परमात्माको देखता हुआ साधक अपनेसे अपनेको हनन नहीं करता है इसलिये वह परागति अर्थात् मुक्तिको प्राप्त होता है ॥॥ प्रकृति ही सब कार्योको करती है और आत्मा अकर्ता है, इस प्रकार जो देखता है वही देखता है ॥ ३१॥ जब भूतोके पृथग्भावको एकस्थ अर्थात् एकही ब्रह्ममे अवस्थित देखता है और उसी एकसे भूतोंका