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श्रीविष्णुगीता।


अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि भो देवाः ! न करोति न लिप्यते ॥ ८३ ॥
यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ८४ ॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति निर्जराः ॥ ८५ ॥ क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षञ्च ये विदुर्यान्ति ते परम् ।। ८६ ॥
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यजज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ ८७ ॥
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।। ८८॥


विस्तार देखता है तब वह ब्रह्म होजाता है ॥ ८२ ॥ हे देवगण ! ये परमात्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण अविकारी हैं (इसलिये) शरीरमें रहनेपर भी न करते हैं और न (फलोंसे) लिप्त होते हैं ॥३॥ जिस प्रकार सबमें रहनेवाला आकाश सूक्ष्म होनेके कारण लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार देहमें सर्वत्र अवस्थित परमात्मा (देहधर्मसे) नहीं होते हैं ॥ ४॥ हे देवगण ! जिस प्रकार एक सूर्य इस संपूर्ण लोकको प्रकाशित करता है उसी प्रकार क्षेत्री अर्थात क्षेत्रज्ञ आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र अर्थात् महाभूतादि विशिष्ट शरीरोको प्रकाशित करता हे। ॥५॥ इस प्रकारसे जो क्षेत्र और क्षेत्रका प्रभेद एवं जीवोंकी प्रकृतिसे मुक्ति ज्ञाननेत्रसे जानते हैं वे परमपदको प्राप्त होते हैं॥६॥ मैं पुनः सब ज्ञानोमे उत्तम परम ज्ञान अर्थात् परमात्मसम्बन्धी ज्ञान कहूंगा जिसको जानकर सब मुनिगण इस देहबन्धनसे (मुक्त होकर) परा सिद्धि अर्थात् मोक्षको प्राप्त हुए हैं ॥८॥ इसज्ञानको पाकर मेरे स्वरूपत्वको प्राप्त होते हुए (वेमुनिगण) सृष्टिकाल में भी उत्पन्न नहीं होते और न प्रलयकालमें प्रलयका