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श्रीविष्णुगीता।


यस्य नाऽहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वाऽपि स इमान् लोकान् न हन्ति न निवध्यते ॥ ९५ ॥
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगादिवौकसः ।।
अन्विच्छताश्रयं बुद्धौ कृपणाः फलहेतवः ।। ९६ ॥
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥ ९७॥
प्रजहाति यदा कामान् देवाः ! सर्वान् मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ९८ ॥
दुःखष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।। ९९ ।।


यथार्थदर्शी नहीं है॥ ९४॥ जिसको " मैं कर्ता हूँ” यह भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि ( इष्टानिष्ट कर्म में ) लिप्त नहीं होती है वह इन सब लोकों को नाश करके भी नहीं नाश करता है और बन्धनको प्राप्त नहीं होता है॥५॥हे देवगण ! ज्ञानयोगकी अपेक्षा काम्यकर्म अत्यन्त ही निकृष्ट है इसलिये आपलोग ज्ञानयोगके आश्रयकी इच्छा करें, फलके चाहनेवाले व्यक्ति कृपण अर्थात् निकृष्ट होते हैं ॥९६॥ (अज्ञानाच्छन्न) सब भूतोकेलिये जो रात्रि है अर्थात् वे आत्माको नहीं देखसक्ते है उस रात्रिमें जितेन्द्रिय व्यक्ति जागता है अर्थात् आत्मसाक्षात्कार करता है और जिस ( विषयबुद्धि ) में जीवगण जागते हैं अर्थात् जगत्को सत्य अनुभव करते हैं वह आत्मतत्त्वदर्शी मुनिकेलिये रात्रीके समान है अर्थात् उसकी विषयोंकी ओर दृष्टि नहीं रहती है ॥ ७ ॥ हे देवगण ! ( परमानन्दरूप ) आत्मामेही स्वयं तुष्ट होकर जब (योगी) मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहाजाता है ॥ ९८ ॥ जिसका मन दुःखोंमें उद्विग्न नहीं होता है, सुखों में जिसकी स्पृहा नहीं है और जिसके राग, भय एवं क्रोध दूर होगये हैं वह मुनि स्थितधी कहाजाता है ॥ ६ ॥ 6