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श्रीविष्णुगीता।


यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत् प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। १०० ॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ १०१॥
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्तते ॥ १०२ ।।
यततो ह्यपि हे देवाः ! साधकस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥ १०३ ॥
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। १०४ ॥
ध्यायतो विषयानस्य सङ्गस्तेषूपजायते ।


जो सब विषयों में ममताशून्य होकर उस उस शुभ और अशुभको प्राप्त करके न आनन्दित होता है और न विषादयुक्त होता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है अर्थात् प्रकृष्टरूपसे ब्रह्ममें स्थित रहती है ॥ १०० ॥ जब यह (योगी) इन्द्रियोंके सब विषयोंसे इन्द्रियोंको, कछुआ जैसे अङ्गोको खींच लेता है उसी प्रकार सर्वथा खींच लेता है तब उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है ॥ १०२ ॥ जो इन्द्रियद्वारा विषय ग्रहण नहीं करता है ऐसे देहधारी व्यक्तिके विषय निवृत्त होजाते हैं किन्तु भोगाभिलाषा निवृत्त नहीं होती है; परन्तु परमा- त्माके साक्षात्कार होनेपर उसकी वह विषयभोगकी अभिलाषा भी निवृत्त होजाती है ॥ १०२ ॥ क्योंकि हे देवगण ! यत्न करते हुए विद्वान साधकके भी मनको प्रमाथी अर्थात् क्षोभ उत्पन्न करनेवाले इन्द्रियगण हठात् खींच लेते हैं ॥ १०३ ॥ योगी उन सब इन्द्रियोंको संयत करके आत्मपरायण होकर रहे क्योंकि जिसकी इन्द्रियां वशमें हैं उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है ॥ १०४ ॥ विषयोंकी चिन्ता करनेवाले