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श्रीविष्णुगीता।


महाविष्णुरुवाच ॥ ११७ ॥

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते ॥ ११८॥
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि सुपर्वाणः ! मुखं बन्धाद्विमुच्यते ॥ ११९ ॥
ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥ १२० ॥
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यञ्च योगश्च यः पश्यति स पश्यति ।। १२१ ॥
सन्न्यासस्तु सुरश्रेष्ठाः दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ १२२ ॥
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।


महाविष्णु बोले ।। ११७ ॥

 कर्मत्याग और कर्मयोग दोनों मोक्षदायक हैं किन्तु उनमें कर्मसन्याससे कर्मयोग श्रेष्ठ है ॥११८॥ जो न द्वेष करता है और आकाङ्क्षा करता है उसको नित्य सन्न्यासी अर्थात् कर्मके अनुष्ठानकालमें भी सन्न्यासी जानना उचित है क्योंकि हे देवगण ( रागद्वषादि) द्वन्द्व से रहित व्यक्ति अनायास बन्धनसे छूटजाता हे। ११९॥साङ्ख्य और योग अर्थात् ज्ञानयोग और कर्मयोग पृथक् हैं इस बातको अज्ञलोग कहते है पण्डितलोग नहीं कहते हैं क्योंकि एकका सम्यक् आश्रय करनेवाला भी दोनोंका फल पाता है जो स्थान साङ्ख्य से प्राप्त होता है वह योगसे भी प्राप्त होता हैजो साङख्य और योगको एक देखता है वह देखता है,अर्थात् वह यथार्थदर्शी है ॥ १२१ ॥ हे सुरश्रेष्ठो! कर्म्मेयोगके बिना सन्न्यास करना दुःसाध्य है किन्तु योगयुक्त मुनि शीघ्रही ब्रह्मको प्राप्त करता है।। १२२ ॥ विशुद्धचित्त, विजितमन, जितेन्द्रिय और