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श्रीविष्णुगीता।


यदादित्यगतं तेजो जगद्गासयतेऽखिलम् ।
यचन्द्रमसि यच्चाऽग्नौ तत्तेजो वित्त मामकम् ॥ ६७ ॥
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ ६८ ।।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चाऽस्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ।। ६९ ।।
अनन्तश्चाऽस्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
प्रहलादश्चाऽस्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।। ७० ॥
मृगाणाञ्च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ।
पवनः पवतामस्मि दानेष्वभयदानकम् ।। ७१ ॥
झषाणां मकरश्चाऽस्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ ७२ ।।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यञ्चैवाहमुत्तमाः ।।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ ७३ ।।


अन्नोंको पचाता हूँ॥६६॥ जो सूर्यगत तेज सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है और जो तेज चन्द्र और अग्निमें है, उस तेजको मेरा तेज समझो ॥ ६७ ॥ मैं पृथ्वीमें प्रवेश करके ( अपने ) बलसे भूतोको धारण करता हूं और रसात्मक सोम होकर सब ओषधियोंको पुष्ट करता हूं ॥ ६८ ॥ मैं आयुधोमे वज्र और धेनुओंमें कामधेनु हूं, (प्रजाओंकी ) उत्पत्तिका हेतु काम हूं और सर्पोंमें वासुकि हूं ॥६॥ नागोमें अनन्त हूं, जलचरों में मैं ( उनका अधिपति ) वरुण हूं, दैत्योंमें प्रह्लाद हूँऔर वशीभूत करनेवालोंमें मैं काल हूं ॥ ७० ॥ पशुओंमें मैं मृगेन्द्र हूं, पक्षियोंमें गरुड़, वेगशालियोंमें पवन और दानों में अभयदान हूं ॥ ७१ ॥ मत्स्योंमें मकर, नदियों में गङ्गा, पितरों- में अर्यमा और शासकों में यम हूं ॥ ७२ ॥ हे श्रेष्ठ देवगण ! सृष्टि- का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूं, विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और