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श्रीविष्णुगीता।


मर्त्यलोके पुनश्वास्याः कृष्णरूपेण वै सुराः ! ॥ १०७॥
द्वापरान्तेऽवतीर्या गीताया ज्ञानमुत्तमम् ।
प्रचार्य पूरयिष्यामि भवतां शुभकामनाः ॥ १०८ ॥
सर्वोपनिषदां सारो वेदनिष्कर्ष एव च ।
योगयुञ्जानचित्तानां गीतेयं ज्ञानवर्तिका ॥ १०१ ॥
त्रितापतापितानाञ्च जीवानां परमामृतम् ।
संसारापारपाथोधौ मज्जतां तरणिः परा ॥ ११० ॥
क्षिप्रमाध्यात्मिकस्तापो पठनात्पाठनादपि ।
नश्यत्यस्या न सन्देहस्तथैतद्वारतोऽमराः ! ॥ १११ ।।
विश्वम्भराख्ययागस्य विधानेनाधिदैविकः ।
आधिभौतिकतापश्च पाठादस्याः प्रणश्यति ।। ११२ ।।
अस्याश्च विष्णुगीताया माहात्म्यं महदद्भुतम् ।
गीतेयञ्च मुमुक्षूणामात्मज्ञानमभीप्सताम् ।। ११३ ।।


विष्णुगीता नामसे प्रख्यात होगी और इस गीताके उत्तम ज्ञानको मैं पुनः द्वापर के अन्तमें मनुष्यलोकमें कृष्णरूपसे अवतीर्ण होकर प्रचारित करके आपकी शुभ कामनाओंको पूर्ण करूंगा ॥१०७-१०॥ यह गीता सब वेदोंका निष्कर्ष, उपनिषदोंका सार और योगाभ्यास- निरत व्यक्तियोंके लिये ज्ञानप्रदीप है ॥ १०६ ॥ त्रितापतापित. जीवों के लिये यह परम अमृतरूपा है । संसार महासागरमें डूबनेवालोंके लिये उत्तम नौका है ॥ ११० ॥ इसके अध्ययन अध्यापन द्वारा अवश्य आध्यात्मिक ताप शीघ्र नष्ट होता है और इसके द्वारा हे देवगण ! विश्वम्भरयाग करनेसे आधिदैविक ताप और इसके पाठ करने और करानेसे आधिभौतिक ताप नष्ट होता है ॥१११-११२॥ इस विष्णुगीताका माहात्म्य महान् अद्भुत है, यह गीता संसारसे वैराग्यवान आत्मज्ञानेच्छु मुमुक्षु सन्न्यासियों के लिये गुरुरूप और मुक्तिप्रद है, ब्रह्मचारी और गृहस्थोंके लिये यह गीता धर्म अर्थ