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श्रीविष्णुगीता।


ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ ७४ ॥
 श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन् विषयानन्ये इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ ७५ ।।
सर्वान्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ ७६ ॥
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथाऽपरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ ७७ ॥
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथाऽपरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ ७८ ॥
अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति ॥
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥ ७९ ॥
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।।


कोई यज्ञरूप उपाय द्वारा ब्रह्मरूपी अग्निमें यज्ञको सम्पन्न करते हैं ।। ७४ ॥ और कोई २ योगी संयमरूपी अग्निमें अपनी श्रवण आदि इन्द्रियोंका हवन करते हैं और कितने योगिगण इन्द्रियरूपी अग्निमें शब्द आदि विषयोंको हवन करते हैं ॥ ७५ ॥ कितने योगिगण ज्ञानके द्वारा प्रज्वालित आत्मसंयमरूप योगाग्निमें सम्पूर्ण इन्द्रियकर्म और प्राणकर्मोका हवन करते हैं ॥ ७६ ।। कोई कोई द्रव्यदानरूपी यज्ञ, कोई तपोयश और कोई योगयज्ञके अनुष्ठाता है तथा नियममें दृढ़ रहनेवाले यतिगण स्वाध्याय और ब्रह्मज्ञानरूपी यज्ञका अनुष्ठान करते हैं ॥ ७७॥ अन्य कोई कोई अपान में प्राण और प्राणमें अपानका हवन करते हैं और इस प्रकारसे प्राण अपानकी गतिको जय करके प्राणायामपरायण होजाते ॥७॥ अन्य कोई कोई नियताहारी होकर प्राणमें प्राणको हवन करते हैं। यज्ञके द्वारा निष्पाप, यज्ञका अवशिष्ट अमृत भोजन करनेवाले सब यज्ञवेत्ता सनातन ब्रह्मको ही प्राप्त होते हैं । हे देवतागण ! जो लोग