दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तदानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥ ३८ ॥
यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः
दीयते च परिक्लिष्टं तद्राजसमुदाहृतम् ।। ३९ ॥
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ४० ॥
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्रिविधं सुराः!
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ।। ४१ ॥
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥ ४२ ॥
मूढ़ग्राहेणात्मनो यत् पीड़या क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थम्वा तत्तामसमदाहृतम् ।। ४३ ॥
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
"दान करना उचित है " इस विचारसे देश काल और पात्रकी विवेचना करके प्रत्त्युपकार करनेमें असमर्थ व्यक्तिको जो दान किया जाता है वह सात्त्विकदान कहा गया है ॥ ३८ ॥ किन्तु जो दान प्रत्युपकारके लिये अथवा फलकी चाहना करके कष्टपूर्वक दिया जाता है उस दानको राजस दान कहते हैं ॥३६॥ देश और काल की विवेचना न करके, सत्कारशून्य और तिरस्कारपूर्वक अपात्रोंको जोदान दिया जाता है वह तामस दान कहाता है ॥ ४०॥ हे देवगण ! आत्मामें अवस्थित व्यक्तियों के द्वारा परम श्रद्धापूर्वक और फल-कामना रहित होकर अनुष्ठित शारीरिक वाचनिक और मानसिक तपको सात्त्विक कहते हैं ॥४१॥ सत्कार मान और पूजाके लिये एवं दम्भपूर्वक जो तपस्याकी जाती है इस लोकमें अनित्य और क्षणिक वह तपस्या राजस कही जाती है ॥ ४२ ॥ अविवेक वश होकर दूसरोंके नाशके अर्थ वा आत्मपीड़ाके द्वारा जो तपस्या की जाती है उसको तामस कहते हैं ॥ ४३॥ निष्काम व्यक्तियों के