पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/१००

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

ब्रह्मोवाच :- 82 द्वादशोऽध्यायः ब्रह्मादीनां श्रीवेङ्कटावलगमनम् । 'अतितीवं तपस्तप्तं रावणेन पुरा सुराः । तेन लब्धमवध्यत्त्रं घोरेण तपसा तदा ।। १ ।। मानुषेभ्यो वधस्तेन निश्चितो न विमुह्यता । तस्योपायमहं वक्ष्ये विष्णुरेव परा गतिः ।। २ ।। स चेदानीं गिरावास्ते भूमौ श्रीवेङ्कटाभिधे । स प्रार्थनीथः सर्वेश्च दैत्योधानां निबर्हणे ।। ३ ।। अहमप्यागमिष्यामि गम्यतामविलम्बतः । बेङ्कटाद्रि प्रभु थल ऋषिन, दशरथ तप सन्तुष्ट । प्रकट रुप वरदा त हि, कृाह कृथा विा तुष्ट ! १ ।। स्वयं स्वयम्भू गमन गिरि, देखन दृश्य अशेष । पुत्र हेतु दशरथ तृप,ि ऋषि वशिष्ट उपदेश ।। २ ।। वेंकटाद्रि नृप ऋषि दोउ, सेवनार्थ भगवान । तप हित गिरि वर पर चढ़न, पुण्य सलिल असनान ।। ३ ।। वेङ्कटाचल पर ब्रह्मादि का आना अस्माजी बोले--प्राचीन काल में रावण ने परम घोर तथा अत्यन्त उग्र तपस्या की थी और उस तपस्या से किसी द्वारा न मरने का वरदान पाया था । परन्तु उसने विमोहित होकर मनुष्यों से अपने वध का निश्चय नहीं किया । इसका उपाय हम बतलाते हैं क्रि, श्री विष्णु भगवान ही इसकी गति हैं और वे तो पृथ्वी