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83 पर ही वेंकटाचल पर्वत पर रहते हैं। दैत्यों के समूह का नाश कराने के लिए वही हम सबके प्रार्थना योग्य हैं । मैं भी आता हूँ ; आप लोग शीघ्र चलिये । (१-३) न शक्यमचिराद् द्रष्टुं विचेतव्यमितस्ततः ।। ४ ।। सानवः सरितश्चापि निराश्च गुहा अपि । विचेतव्याः सदा सर्वेर्युष्माभिश्च विशेषतः ।। ५ ।। तस्यात्यन्तप्रियतमो भूधरो वेङ्कटाभिधः शुकपक्षिमृगादीनां रुपं धृत्वा परात्परः ।। ६ ।। क्रीडते रमया सार्ध सूरिभिस्तत्र पर्वते । गिरिप्रदक्षिणे प्रीतिर्महती तस्य वर्तते ।। ७ ।। प्रदक्षिणविधानेन विचेतव्यः स भूधरः । । पर उनका दर्शन शीघ्र नहीं हो सकता, अत एव उनको इधर-उधर खूब खोजियेगा । आप लोगों को विशेष रूप से नदी, पहाड, घाटी, तथा झरनों को हूंढना पडेगा । उनका अत्यन्न प्रियतम वेङ्कटाचल पर्वत है, वहाँ वे सुग्गे, पक्षी मृगादि का रूप धारण कर ज्ञानी गणों से सेवित होकर रमादेवी के साथ क्रीडा करते हैं । उस पर्वत की प्रदक्षिणा करना उनको बहुत अधिक प्रिय है । अतः प्रदक्षिणा-विधि से उस पर्वत को ढूंढना पडेगा । (४.७ ) इक्ष्वाकुवंशप्रभवो राजा दशरथो महान् ।। ८ ।। वेङ्कटाद्रि समागत्य पुत्रार्थी तप उत्तमम् । करिष्यति महाभागः स्वामिपुष्करिणीतटे ।। ९ ।। दर्शयिष्यति रुपं स्वं तस्य राज्ञः श्रियःपतिः । इक्ष्वाकु वंश में भहा पराक्रमी दशरथ राजा हुए हैं, वे पुत्र की इच्छा से परम उत्तम तपस्या वेङ्कटाद्रि के स्वामी पुष्करिणी-तट पर करेंगे । उनको श्रीपति अपना स्वरूप दिखलायेंगे । (८-९)