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8} सरों, झरनों तथा पुष्करिणियों में स्नान करके, भगवान् श्रीनिवास को फूलों से सविनय पूजा कर तथा अमृतमय फलों का नैवेद्य चढाया, पर उन्होंने वहाँ न तो कोई देवता, न कोई मन्दिर, न गोपुर, तथा योगनिष्ठ मुनियों को देखा । पीछे वहीं बैठे हुए महातेज ऋषियों तथा लोकोत्तर नाना वर्ण की मनोमुग्धकारिणी शोमावाले मृग, पक्षी एवं गंधर्व को देखकर यही भगवान हैं, यह समझ आनन्द एवं आश्चर्यान्वित हृदय से उस पर्वत पर भगवान की दर्शन-लालसा में लगे हुए चित्त से घूमने लगे । (२७-३२) पुखार्थिनो दशरथस्य श्रीवेङ्कटाचलागमनम् तस्मिन्काले तु धर्मात्मा राजा दशरथः प्रभुः । शशास मेदिनीं कृत्स्नामयोध्यायां महायशाः ।। ३३ ।। वर्णाश्रमाचारयुताः प्रजा धर्मेण पालयन् चिरकालं महीं राजा बुभुजे भूरिविक्रमः ।। ३४ ।। न चाद्राक्षीत्कुमारस्य शुचिस्मेरमुखाम्बुजस् । वसिष्टमब्रवीत् दुःखात् ब्रह्मर्षिममितौजसम् ।। ३५ । 'पुरोहितोऽस्य वंशस्य विशेषेण भवान्मुने ! । चिरं लालप्यमानस्य नाऽसीद्वशकरः सुतः ।। ३६ ।। पापिनो मम तु ब्रह्मन्! मया पापं कृतं बहु । पापस्य निष्कृतिः कस्मात्कथं पुत्रो भविष्यति ? ।। ३७ ।। उस समय महा धर्मात्मा महायशस्वी महाराज दशरथ, अयोध्या में रहते हुए सम्पूर्ण पृथ्वी मण्डल पर राज्य करते थे । अमित पराक्रमवाले उस महाराज ने वर्णाश्रम आचार सहित सब प्रजा को धर्म से यथायोग्य पालन करते हुए बहुत समय तक राज्य किया । परन्तु हँसते हुए मुखवाले किसी पुत्र को नहीं देखकर अमित तेज समन्वित, ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी से अत्यन्त दुःखित होकर उन्होंने कहा कि हे महामुनि आप इस महावंश के प्रधान पुरोहित हैं, बहुत दिनों से लालायित रहने