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पर भी मुझको कोई वंश-रक्षक पुत्र नहीं है, हे ब्रह्मन !! मुझ महापापी से अनेक महापाप हुए हैं उन पापों की निष्कृति कैसे होगी और किस प्रकार मुझको पुत्र (३३-३७) गा | इति प्रोक्तो वसिष्ठस्तु क्षणं ध्यात्वा प्रसन्नधीः । प्राह चैनं नृपं धीरं वसिष्ठो भगवानृषिः ।। ३८ ।। पुण्यश्लाकस्य भवतः कृथ पाप भावष्यात । तथापि तव राजेन्द्र! पुत्रप्राप्तिविरोधकृत् ।। ३९ ।। दुष्कृतं किञ्चिदस्तीति ध्यानेन प्रतिभाति मे । तस्य पापस्य शान्त्यर्थ पुत्राणा प्राप्तये तथा ।। ४० ।। सेव्यः श्रीवेङ्कटाधीशः क्षीराब्धितनयापतिः' । यह सुनकर भगवान वशिष्ठ जी ने क्षणमात्र ध्यान करके प्रसन्न चित्त होकर परमधीर राजा से कहा कि पुण्यश्लोक, आप से किस तरह पाप हो सकता है, तथापि राजेन्द्र! आपको पुत्र-प्राप्ति में बाधा देनेवाला कोई पाप मुझे ध्यान से दृष्टि से मालूम पड़ता है। उस पाप की शान्ति तथा पुत्र-प्राप्ति के लिये श्री वेङ्कटाधीश लक्ष्मीपति की सेवा करनी होगी । (३८-४१) इत्युक्तः प्राह राजाऽपि ब्रह्मन् ! कुत्र श्रियःपतिः ।। ४१ ।। इदानीं वर्तते विष्णुः कथं दृश्यो मया प्रभुः । यह सुनकर राजा ने पूछा कि हे प्रभो, वह् श्रीपति परमात्मा इस समय कहाँ मिलेंगे, मुझको उस सर्वव्यापी के किस प्रकार दर्शन होंगे । (४१) इति पृष्टः पुनः प्राह वसिष्ठोऽपि महामुनिः ।। ४२ ।। शृणु राजन्महाभाग! भागीरथ्याश्च दक्षिणे । वर्तते वेङ्कटः शैलो योजनानां शतद्वये ।। ४३॥