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91 नदीषु देवखातेषु तथा पुष्करिणीषु च । स्नात्वा निर्मलसर्वाङ्गः क्षालिताघो महाबलः ।। ५८ ।। लब्ध्वा चित्तस्य संशुद्धि पीतामृत इव प्रभुः । मुमुदे च महाराजो भोक्तुकामः सुतोत्सवम् ।। ५९ ।। नन्दन वन्, चैत्ररथ उद्यान, दोनों मिलकर सम्पूर्ण रूप से वास करते हैं, ऐसा मानकर मनोहर वृक्ष गुल्म लतादि सहित युवावस्य मेरुपर्वत के समान, नयन तथा हृदय को आनन्द पहूँचानेवाले उस पर्वतपर चढ़कर, झरने, तडाग सरसी, तालाब , नदी तथा पुष्करिणी आदि सबों में स्नानकर सर्वाङ्ग निर्मल, पापरहित, महाबलथान तथा मन की शुद्धि को प्राप्त होकर अमृत पान करने के समान तृप्त होकर वह महाराज दशरथ पुतोत्सव के सुख-भोग की कामना से परम आनन्दित हुए। (५६-५९) इति श्रीवाराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहाम्ये ब्रह्मादीनां श्रीवेङ्कटाचलागमनादिवर्णनं नाम चतुश्चत्वारिंशोध्यायोऽत्र द्वादशः