93 योग ध्यान रत जाप-जप, हवन मन्त्र तप लीन । दर्शन अगणित ऋषिन के, प्रभु पूजा पर वीन ।। २ । मध्य स्वयंभू उग्र तप, देख किया परनाम । तेरह वें अध्याय में, वर्णित है सव काम ।। ३ ।।
- महाराज दशरथ का महर्षि चरिख दर्शन'
श्री सूतजी घोले-तत्पश्चात राजा दशरथ वसिष्ठजी के साथ शिखर युक्त रम्य वन तथा घाटियों को देखते हुए परम शुभकारिणी स्वामिपुष्करिणी के तीर पहुँचे, जो फूले हुए कल्हार, कुमुद, कमल, विशाल पद्म, नीलोत्पल, रक्तोत्पल, अंजुल (वेत) बकुल, आदि नाना जंगली पुष्पों से सुशोभित ; हंस, करण्डव, वगुले, भेक, सारस, भ्रमर आदि के शब्दों से गुणायमान् ; मछली ; कछुपे, मकर, घडियाल, कोकरा आदि जल तथा वन-वृन्तुओं से परिपूर्ण; नारियल, आम, पूंगी, चम्पा, पुन्नाग, केतकी, स्वर्ण केतकी, अशोक, केला, अनार, लिच्ची, बिजौरे आदि तट दृमों से परम रमणीय हो रहा था । वे महातेजस्वी उस पुष्करिणी को देखकर अत्यानन्दित हुए। (२-७) मुनीन्ददर्श तत्रैव तपतो योगिनोऽमलान् ।८ । वीरासने सभासीनान्बद्धपद्भासने स्थितान् । भद्रासनगतान्कांश्चित्सिंहासनगतान् परान् ।। ९ ।। सिद्धासनगतान्कांश्चित्स्वस्तिकासनमाश्रितान् । पर्णाशनान्वायुभक्षन्गोमुखासनसंस्थितान् ।। १० ।। अङगुष्ठाग्रस्थितान् कांश्चिदेकपादेन विष्ठितान् । सूर्योन्मुखान्मुनीनन्यन्कांश्चित्पञ्चाग्निमध्यगान् ।। ११ ।। भूशयाञ्जलशय्याश्च फलमूलजलाशनान् । केवलं कुम्भके सक्तान् केवलं रेचके रतान् ।। १२ ।।