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पुनः महाराजा ने दशरथ वशिष्ठजी के साथ परमानंदित होकर उन तपस्वी ऋषिगणों के बीच महात्मा कमलासन, चतुर्मुख, चतुर्वाहु, तेजपुञ्ज, स्फटिक तथा अक्ष की माला धारण किये, परम जाज्वल्यमान, नासाग्रपर नेत्र लगाए; मन में श्रीपति का ध्यान करते हुए, वाघम्बर पर ध्यान-योग में निश्चलरुप से समासीन, निर्वात स्थान में रखे हुए दीपक के समान निष्कम्प-भाव से बैठे श्री ब्रह्माजी को भी देखा । तत्पश्चात् उस स्थान में बैठे योगियों, मुनियों तथा सव देवताओं को यथारीति प्रणाम कर विस्मयोत्फुल्ल नेत्रवाले महाराज बैठ गये । (३७-४२) इति श्रीवाराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये श्रीवेङ्कटाचलवासि महर्षिदिव्यचरित्रानुवर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायोऽत्र त्रयोदशः ।