पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/११९

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

101 वसिष्ठजी भी कुशासन बिछाकर उसीपर बैठ, मन्त्र का जप करने लगे, इतने ही में कोई बडे जोर की आवाज हुई। सभी मुनिबर्ग आकुल होकर कि यह क्या हुशा, इधर उधर देखने लगे । उन्होंने एक परम दुर्निरीक्ष्य महातेजपुञ्ज को देखा । ऐसा मालूम होता था, मानों सम्पूर्ण पर्वत विद्युत मम हो गया हो, मानों समस्त ज्योतिगणों का सम्मिश्रण हो गया हो और करोड सूर्य अगणित पूर्णचन्द्रमा एक ही होकर उग गये हो । उस तेज से ठीक वैसा ही प्रकाश उत्पन्न हुआ । एकाएक यह क्या हुआ, ऐसा जानने में अशक्त होकर देवताओं ने अपनी आंखों को बन्द कर लिया, और सब भयभीत मन से एकत्र होकर बडे आदर से विविध मंत्रों को जपने लगे । (१२-१३) तत्तेजसा जगत्सर्व प्रदीप्तमिव च स्थितम् । तेजोमध्ये समुद्भूतं विमानं सूर्यभास्वरम् ।। १४ ।। अनेकगोपुरैर्युक्तमनेकावरणैर्युतम् । तप्तहाटकनिवृत्तकवाटगणशोभितम् ।। १५ ।। नीलैर्मरकतैश्चैव कृततोरणसञ्चयम् । समुच्छूितपताकाभिः शोभितं विविधैध्र्वजैः ।। १६ ।। शातकुम्भमयैः कुम्भैः शोभिताप्रैश्च गोपुरैः । अलङ्कृतं वितानैश्च विचित्रैर्वर्णभेदत ।। १७ ।। लम्बमानैस्तत्र मुक्तादामभिदिविसम्भवै मल्लिकामालतीजातिपुष्पाणां च सरैस्तथा ।। १८ ।। स्वर्णचित्रितवस्तैश्च लम्बमानैरलङ्कृतम् । अनेकमणिरत्नाढ्य क्रीडामण्डपसंयुतम् ।। १९ ।। आस्थानमण्डपान्तस्थमणिस्तम्भसुशोभितम् । चतुर्दिक्षु चतुद्वरं द्वारपालैश्च सेवितम् ।। २० । सहस्ररत्नसुस्तम्भमणिमण्डपशोभितम् । रथाश्वगजमुख्यैश्च दिव्ययानैरलङ्कृतम् ।। २१ ।।