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पञ्चदशोऽध्याय ब्रह्मादीनां भगवन्मन्ट्रिप्रवेशादिवर्णनम् सूत उवाच : अतीत्य प्रथमद्वारं रत्नतोरणभूषितम् । तप्तहाटकनिष्पन्नकवाटद्वयशोभितम् ।। १ ।। चण्डप्रचण्डौ प्राग्द्वारे शङ्खचक्रगदान्वितौ । द्वारपालौ प्रणम्यैव द्वितीयं द्वारमाविशन् ।। २ ।। तथैव सप्त द्वाराणि समतीत्य महाभुजाः । चतुर्मुखमुखाः सर्वे तत्र देवं श्रियःपतिम् ।। ३ ।। अपश्यन्नतिसंहृष्टाः सह राज्ञा महात्मना । विमाने बहुविस्तीर्णे सिद्धचारणसेविते ।। ४ ।। द्वारपाल गणमान्थ को, कर विनती परनाम । मन्दिर के अन्दर गभन, जपन निरंजन नाम ।। १ ।। लोकपाल गन्धर्व ग्रह, दर्शनार्थ भगवान । गमन-मध्य मन्दिर मिलन, दिव्य रूप निर्वाण ।। २ ।। दिव्यगिलन प्रभु रूप से, प्रमुदित उमगित काय । पन्द्रहवें अध्याय में, कहा सूत समझाय ।। ३ ।।

  • ब्रह्मादि का भगवन्मन्दिर प्रवेश'

श्रीसूतजी बोले-रत्न तोरण भूषित, तपाये सोने के बने दोनों किवाडों युक्त प्राग्द्वार को पारकर शंख-चक्र, गदाधारी, चण्ड, प्रचण्ड नामक द्वारंपालों को प्रणामकर पुनः दूसरे और इसी प्रकार सातों द्वारों को पार करके ब्रह्मादि देवों ने महाराज दशरथ के साथ बहुत वितीर्ण, सिद्ध चारणगणों से सेवित विमान में श्रीपति को देखा } . (१४)