पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/१२९

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{{1 अनुभूय तभानन्दं चिरात्स्वस्था गतज्वराः । तस्थुश्च देवदेवेशं वीक्षमाणाः पुनः पुनः ।। ४१ ।। जिनके प्रत्यक्ष रुप को देखने के लिए तपस्विगण तपस्या करते थे, उसी देवादिदेव, अज, अनादि, श्रुङ्गार-रस-सागर, नेत्रों के सफल मनोरथ स्वरूप, भगवान को विशेष प्रसन्न चित्त होकर, ऋषियों ने देखा । सूर्य के समान तेजवाले, नयनानन्द कारक भगवान को देखकर सबों की आँखें अत्यन्त शीघ्र प्रकाशित व विकसित हुई। अतः उनके दर्शन से थोगिण तथा अन्यान्य मुनिगण भी परम हर्षित हुये । अप्सरागण नाचने लगीं। गिरते हुए को अन्य लोग गिराते, घूमते व धुमाते, उछलते व उछालते आनन्द से परिपूर्ण हो तथा आनन्द का आँसू बहाते हुए बाबलों से हो रहे थे । उस परमानन्द का अनुभव कर गतज्वर स्वस्थ हुए की तरह देवादिदेव को बारम्बार देखते रहे। (३६-४१) इति श्रीवाराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये ब्रह्मादीनां भगवन्मन्दिरप्रवेशप्रणमनादिवर्णनं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायोऽत्र पञ्चदशः