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113 पालने फलदाने च प्रभुरित्युच्यसे बुधैः । न केवलं त्वदुद्देशकृतानां कर्मणां प्रभुः ।। ५ ।। अन्योद्देशकृतानां च यज्ञानां त्वं प्रभुस्तथा । आदावन्ते तथा मध्ये त्वज्ज्ञानं तु न चेन्न तत् ।। ६ ।। न्यूनं चापि कृतं कर्म त्वद्ध्यानाद्याति पूर्णताम् । कर्मणैव हि सुप्रीतस्त्वं तु धर्म ददासि च । ७ ।। अर्थकामौ तथा मोक्ष ददासि च तपः प्रियः । वेदेषु बहवो भागाः कर्माण्येव वदन्ति हि ।। ८ ।। तान्येव हि तव प्रीतिकारिणीति पुरा विदः । यथावत्तानि कर्त च न शक्यानि मनीषिभि ।। ९ ।। अस्माभिः क्रियते घुष्मदाज्ञा बुध्या हि कर्म तत् । कर्मच्छिद्रं तपश्छिद्रं त्यक्तं चोपेक्षितं च यत् । तत्सर्वं क्षम्यतां देव श्रीनिवास क्षमानिधे ।। १० ।। अगत्स्यादि ऋषिनाण बोले-हे भगवान् ! यशरुप, यज्ञ भोगनेवाले यज्ञप्रिय, यज्ञ करनेवाले, आपको नमस्कार है । यज्ञ की रक्षा करनेवाले तथा यज्ञ का फलप्रदान करनेत्राले आपको नमस्कार है, विश्वामित्र के महायज्ञ की रक्षा करनेवाले आएको प्रणाम है । जितने संसार में यश, श्रद्धा और दान कर्म है उन स कर्म का ज्ञानी लोग आप ही को पालक और फलदाता कहते हैं। आपके निमित्त किये हुए सब कम के ही आप मालिक नहीं हैं, बल्कि अन्य देयता का उद्देश लेकर भी जो कभै किये जाते हैं उन सबके स्वाभी भी आप ही हैं । आदि, अन्त तथा मध्य में आपका ज्ञान नहीं होने से कोई कर्म ही नहीं । अधूरा किये हुए कर्म भी आपके ध्यान से पूर्ण हो जाते हैं । कर्म से ही प्रसन्र होकर, तपप्रिय, आप, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करते हैं १ . वेद का बहुत भाम कर्म की प्रशंसा करता है । पुराविद्गण उन्हीं को आपका प्रीतिकारक बतलाते हैं। उन सव कमों को पण्डुितगण भी यथावत नहीं कर सकते । हम लोग उन सब कमों को 15