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कदाचित् द्विभुजस्त्वं तु कदाचित्वं चतुर्भुज । कदाचिच्च तव स्वामिन ! न किञ्चिच्चरणादिकम ।। १८ ।। आकाशमिव ते रूपं कदाचिज्ज्ञानगोचरम् । कदाचिन्निर्विकल्पेन वेद्य यत्नेन कस्यचित् ।। १९ ।। आहुस्त्वां सगुणं केचिन्निर्गुणं ज्ञानमात्रकम् । किञ्चिदित्येव केचित्तु सदित्येव तु केचन ।। २० ।। दिव्यावयवसौन्दथ नित्यविग्रहयोगिनम । वदन्ति केचिदस्माकमपि तन्मतमुत्तमम् । हृद्य प्रमाणभूयिष्ठं तं नृताः स्म जगद्गुरुम् ! २१ ।। इन्द्रादि बोले-वेङ्कटेश, शेषाद्रिवासी, सिंहाचलनिवासी, नारायण केशव और वासुदेव आप को रोज रोज नमस्कार हो । ऋषीकेश, वामन-विराट, आपको नभस्कार हो तथा हे स्वामिन ! आप सब प्राणियों की रक्षा करने के लिये तथा निवास के हेतु पाताल से पृथ्वी लाकर पुन: उसे वृढ करके सब जगों पर अनुग्रह करते हुए इस पर्वत पर प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ते हैं। देवताओं के लिये समुद्रमथन कर अमृत ला, उन लोगों को प्रेमपूर्वक अमृत देकर के उनकी रक्षा की है। हे स्वामिन ! आपकी प्रवृत्ति सदा परोपकारार्थ ही है । हे सुरेश्वर ! आपका यथार्थ रूप कौन जान सकता है? कभी तो आप सहृन्नमूध, सहस्राक्ष, सहस्रपाद, कभी आप दो भुजावाले, कभी चतुर्भुज हो जाते हैं। हे स्वामिन ! कभी तो आपके एक भी चरण नहीं रहता, कभी आपका रूप आकाशवत ज्ञानगम्य हो जाता है, और कभी कभी अत्यन्त परिश्रम से निर्विकल्पक प्राय: ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं । कोई कोई केवल शानमान्न तथा निर्गुणरूप और कोई सगुण कहते हैं, कोई कुछ कोई सत् रूप वर्णन करते हैं। कोई दिव्य शरीरयुक्त और दिव्याभरण भूषित आपको कहते हैं। हम लोगों के मत में भी बही उत्तम जान पड़ता है। हृदय के शिय, सब प्रमाणगम्य तथा जगद्गुरु आपको नमस्कार है। (१२-२१) एवं हि स्तूयमाने तु गोविन्दे त्रिदशैरपि तुष्टुवुः सनकाद्याश्च योगिनो विजितेन्द्रियाः ।। २२ ।।