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इस प्रकार सब देधगणों से गोविन्द की स्तुति किये जाने पर सनकादि जितेन्द्रिय मर्षिाण स्तुति करने लगे । (२२) सनकादिकृतभगवत्स्तुति : बैकुण्ठधाम विष्णो त्वं जगतामादिकारणम् । नमामि त्वं जगदूपं नमामि त्वामसङ्गिनम् ।। २३ ।। आधारपद्ये हृत्पन्ने धूमध्ये मूर्धिन पङ्कजे । नीवारशूकवत्सूक्ष्मं पीताभं सर्वतोमुखम् ।। २४ ।। सुषुम्ना मार्गमध्येऽपि बिसतन्तुनिशं परम् । ज्ञानात्मक मनोवेद्य लयवाच्यमरूपकम् ।। २५ ।। स्वयं प्रकाशरूपं च समाधौ त्वं नमाम्यहम् । योगिनां परमाधारं योगीशं योगदायिनम् ।। २६ ।। योगिनाभप्यगम्यं च नमस्यामो जगद्गुरुम् । हृत्पद्मकणिकामध्ये शङ्खचक्रगदाधरम् ।। २७ ।। नीलतोयदसङ्काशं पीतवाससमच्युतम् । नमामो वेदवेद्य त्वां वेदस्याविषयं तथा । त्वत्पादं सर्वभावेन सर्वथा शरणं गता ।। २८ ।। सनकादि ऋषिगण बोले. हे वैकुण्ठधाम ! हे विष्णो ! आप ही जगत के आदि कारण हैं और संगरहित जगतरूप आपको प्रणाम करते हैं । आधार कमल में, हृदय कमल में भूमध्य तथा मस्तकस्थित सहस्रदल कमल में, सर्वतोमुख पीतवर्ण जब के अग्रभाग के समान सूक्ष्मरूप, सुषुम्ना नाडी के सध्य में कमलतन्तु के समानव्याप्त, ज्ञानस्वरूप, मनोगम्य, रूणहीन, प्रलयस्वरूप, समाधि में स्वयं प्रकाश स्वरूप ज्योति स्वरूप. आपको प्रणाम है । योगियों के परमाधार, योग दाता, योगीश जगद्गुरु,