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योगियों से भी अगभ्य आपको नमस्कार करते हैं । हृदयकमल के दल में शंख चक्र और गदाधारी, नीलमेवश्यान, पीताम्बरधारी तथा वेदों के भी परे आपको प्रणाम करते हैं। सर्वभाव से आपके चरण कमलों की शरणागत होते हैं । (२३-२८) इति स्तुते जगन्न्नाथे योगिभिः कोसलाधिप । तुष्टाव हृष्टस्तं देवं राजा दशरथस्तदा ।। २९ ।। थोगी तथा सिद्धों को इस प्रकार जगन्नाथ की स्तुति कर लेने पर महाराज दशरथ अत्यन्त आनन्द में मग्न होकर उस भगवान् की स्तुति करने लगे । (२९)

  • दशरथकृतभगवत्तुति '

ब्रह्मन्द्रप्रमुखाः सर्वे तपः कुर्वन्ति यत्कृते । त्वदधीना रमा सा तु त्वत्प्रसादाभिकाङिक्षणी ।। ३० । । त्रिपुरारेर्महाविष्णोः लोकसंहारकारिणः । येन दग्धा पुरी तत्तु त्वदायुधमिति स्मृतम् ।। ३१ ।। सर्वसृष्टिक्रियाकर्तृ ब्रह्माद्या देवतागणाः । त्वदाज्ञाकारिणः श्रीश ! नास्ति कश्चित्तवाधिकः ।। ३२ ।। त्वदीयं धाम वैकुण्ठं निरपायं निराकुलम् । सर्वप्राथ्र्य परानन्दं वक्तव्यं किमतःपरम् ।। ३३ ।। महाराज दशरथ बोले-ब्रह्मा, इन्द्र प्रभृति सब देवगण जिसके लिए तप करते हैं, वह रमादेवी भी थापकी प्ररुत्नता की अभिलाषिणी धनी रहती है । हे महाविष्णु ! लोक संहार करनेवाले त्रिपुरारि के जिस महास्त्र से वह पुरी दाध हुई थी, वह महास्त्र आप ही का था । सब सृष्टि-क्रिया को करनेवाले ब्रहभादि देवता गण आप ही की आज्ञा में रहते हैं। हे भगवान ! हे श्रीपति! आपसे बड़ा कोई भी नहीं हैं । हे भगवान ! आपका वैकुण्ठधाम निराकुलं निरपाय, सभी से प्रार्थनींथ तथा परमानन्द-दायक हैं, और क्या कहें। एवं नृपेण गोविन्दे स्तूयमाने चतुर्मुखः । चतुभिस्तोषयामास मुखैर्वेदसुगन्धिभिः ।। ३४ ।। । (३०-३३)