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इस प्रकार गोविन्द भगवान की राजा दशरथ से स्तुति किये जाने पर चयुर्मुख ब्रहमा वेद से सुगन्धित अपने चारों मुखों से स्तुति करने लगे । (३४) ब्रह्ममकृतभगवत्स्नुतिः ब्रटमोवाच :- आसीदग्रे सदेकस्तु सत्यनारायणः श्रुतः । अपोऽसृजत्ततो वीर्य विसृष्टं तासु तेन वै ।। ३५ ।। तदण्डमभवत्पश्चात्त्वया सृष्टोऽहमीश्वरः ! मया सृष्टाः प्रजाः सर्वाः सर्वमूलं त्वमेव भोः ।! ३६ ।। मादृशा विधयो जातास्त्वत्तः कति कतीश भोः ! जीवैः सूक्ष्मप्रकृत्या च विशिष्टस्त्वं तु कारणम् ।। ३७ ।। त्वमेव सर्वभूतात्मा 'जगदित्युच्यसे श्रुतौ । ब्रह्माजी ने कहा-सृष्टि के पहले एक ही सत्यनारायण थे। उन्होंने पहले जल की रचना की तथा उसके बाद उसमें वीर्य को छोड िदया, पश्चात वह अंड हुआ । फिर हमारी सृष्टि हुई । पीछे हमने सारी प्रजा की रचना की । इस तरह आप ही सब के मूल कारण हैं ? हे भगवन ! हमारे समान कितने ही ब्रह्माजी आप से उत्पन्न हुए हैं । जीव अथवा सूक्ष्म प्रकृति दोनों से ही विशिष्ठ आप ही कारण हैं। आप ही सर्वभूतों की आत्मा तथा सब प्रपञ्च स्वरूप ऐसा वेद कहते है । (३५-३७) एकं वृक्ष सभासाते सुपर्णावियुतौ हरे ।। ३८ ।। तयोरन्यः कर्मजन्यं फलमश्नाति सर्वदा । अस्पृष्टगन्धस्तत्रैव दीप्यसे त्वं यथा रविः ।। ३९ ।। नियन्ता सर्वजीवानां प्रेरकश्चानुमोदकः । सत्यं ज्ञानमनन्तं च त्वदूपं वै श्रियःपते ! ।। ४० ।। इत्यारभ्य तव स्तोतुमानन्दं कमलापते ! ।। ४१ ।।