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19 उपक्रम्य परिच्छेतुं तवानन्तगुणार्णवम् । अजानन्तः पुरा वेदास्ते च नित्या सहस्रधा ।। ४२ ।। तूष्णींभावं ययुः सोऽहं त्वन्नाभिकमलोद्भवः । कथं स्तौमि गुणक्षीरपयोधिं त्वां रमापते ! ।। ४३ ।। दयोद्रिक्तमुखाम्भोजदर्शनात्ते वयं सुरा । अवादिष्म च किञ्चित्त तत्सर्वं क्षम्यतां प्रभो ! ।। ४४ ।। प्रसीद परमोदार ! प्रसीद त्वं श्रियोज्ज्वल ! । प्रसीद परमानन्द ! प्रसीद सुमुखोज्ज्वल !” ।। ४५ ।। इति देवगणाः सर्वे हर्योत्फुल्लहृदम्बुजाः । अस्तुवन्देवदेवेशं याथात्म्याद्वहुधा तदा ।। ४६ ।। एक ही वृक्ष पर दो पक्षी मिलत होकर बैठे हैं; उन दोनों में एक (जीब) कर्म से उत्पन्न होनेवाले फल के सदा भोगता है । वहाँ भोग गंध से भी रहित होकर, आप (दूसरा पक्षी) सूरज के समान चमकते रहते हैं। सब जीवों के नियामक, प्रेरक तथा अनुमोदक, सत्य एवं अनन्तज्ञान आप ही का स्वरुप है। हे श्रीपति भगवान मनुष्यों के आनन्द से देव तथा गन्धर्वो का आनन्द सौगुना है। इस प्रकार हे कमलापति भगवन, आप का स्तोत्र आरम्भकर, आपके गुणों के अनन्त समुद्र का परमाण बतलान का न जानकर नित्य तथा हजारों प्रकार हजारों वेद भी चुप हो गये तो आपके नाभि कमल से उत्पन्न मैं ही आपके गुणसागर की किस प्रकार स्तृतिकर सकता हूँ । आपके दया, मुखकमल को देख हम सब देवता लोगों ने आपके सामने आपकी जो कुछ स्तुति की, कृपया आप उसे क्षमा करें । हे परम करुणामूर्ति । हे श्रीकान्त ! आप प्रसन्न हो । हे सुन्दर मुखोज्ज्वल ! हे परमानन्द ! आप हम लोगों पर प्रसन्न हो । इस प्रकार सभी देवताओं ने हृषोत्फुल्ल हृदय से देवादिदेव भगवान की स्तुति की। (३८-४६) इति श्रीवराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये अगत्स्यादिकृत भगवत्स्तुत्यादिवर्णनं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायोऽत्र षोडशः ।