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120 सप्तदशोऽध्यायः ब्रह्मादीन् प्रति भगवत्कृतकुशलानुयोगादयः सूत उवाच : मुनिभिर्देवबृन्दैश्च स्तुतः श्रीवेङ्कटाधिपः । दयाप्रसन्नसम्फुल्लनेत्राब्जाभ्यां विलोकयन् ।। १ ।। तान्सर्वान्वै सुधावृष्ट्याऽह्लादयन्निव सोऽच्युतः । बभाषे मेघगम्भीरवाचा कर्णामृतश्रिया ।। २ ।। सत्रहवे झध्याय में ब्रह्मासे भगवान । कुशल प्रश्न मय ने किया, दैत्य विघ्न पवीन ।। १ ।। व्याकुल सत्र को देखकर, धीरज दिया महान । पुनि आगस्त ब्रह्मर्षि से, कुशल-प्रश्न सम्मान ।। २ ।। उत्तर उनसे भी वही, विघ्न-समन अनुरोोध । सुनि पूछा सनकादि से, अभिमत सह अनुरोध ।। ३ ।। प्रकटरू से ताहि गिरि, विघ्न पुञ्जकरु शान्त । सनकादिक ने विनय की किये वास हेतु श्रीन्त ।। ४ ।। मय वा को पुनि शान्ति दे, प्रश्न शङ्कर हि कीन्ह । वासस्थल दिखलाय तेहि, पुत्रदान नृप दीन्ह ।। ५ ।। ब्रह्माजी से भगवान का कुशल पूछना श्री सूतजी बोले-तव श्री वेङ्कटाधीश भगवन मुनिगण तथा देवताओं से स्तृत्य होकर उन लोगों की जोर करूणाभरी दृष्टि से अवलोकन करते हुए अमृत के समान कर्ण-मधुर तथा मेघ-गम्भीर वचन बोले । (१-२)