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122 अतिचैत्ररथे दिव्ये गिरावस्मिन्वृषाभिधे । क्रीडसे परमानन्दः क्रीडारसवशानुगः ।। १० ।। अस्माकं का गतिर्विष्णो ! वद वेङ्कटनायक ! इत्युक्तः प्राह तान् सर्वान् कृपानिधिरधोक्षजः ।। ११ ।। श्री भगवान से रावण का उपद्रव वर्णन करना ब्रह्माजी बोले-पूर्वकाल में विश्रवस का पुत्र रावण नाम का राक्षस घोर तपस्या कर, मनुष्यों को छोड़ देवता, दानव और राक्षसों से न मरने का वरदान पा बल के दर्प से तपस्दियों और मनुष्यों को बराबर दुःख दे रहा है । कोई-कोई महावेग दैत्य श्री पर्वत के निकट बलोद्धत हो, नित्य ब्राह्मणों का कण्टक होकर सदा शस्त्रास्त्र लिए सब प्राणियों को सताते हैं । वैकुण्ठभ्राम, क्षीरसिन्धु, एवं आप के सब दूसरे दूसरे प्रेमकारक स्थानों में भी देखपर वहाँ लक्ष्मीकान्त तथा हृदय पङ्कज में लीला चपल आपको न देखकर जब हम सब यहाँ आये हैं । हे शत्रुदमन ! आप ही हमारी गति हैं। हे रमापति ! जगत की रक्षा करनेवाले, आप उन वैकुण्ठाद्रि को छोड़कर दिव्य चैत्ररथ से अधिक इस वृष नामक पर्वत पर प्रसन्न चित्त से क्रीडा-रस-वश हो रमते हैं । हे विष्णो ! हे वेङ्कटनायक । हम लोगों की कौन-सी गति होगी, आप ही बतावें । इस तरह सब देवताओं ने श्री विष्णु भगवान से थों कहा । यह सब सुनकर दया समुद्र श्री नारायण ने कहा । (४-११) श्रीभगवानुवाच : 'अहमेव गतिर्बह्मन्भवतां मास्तु तद्भयम् । अभयं भवतां दत्तं मया हि कमलासन ! ।। १२ ।। अचिराद्राक्षसं क्रूरं रावणं लोककण्टकम् । सबन्धं सरथं साश्वं वधिष्यामि न संशय '।। १३ ।। एवमुक्त्वा विधि श्रीशः प्राहागस्त्यं तपोधनम् । अगस्त्य ! स्वागतं ते हि बूहि कार्य महामुने ' ।। १४ ।।