पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/१४१

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

123 इत्युक्तः प्राह तं विष्णु मुनिः परमपावनः । मन्दस्मितं मनोहारि त्वदीयमुखपङ्कजम् ।। १५ ।। सद्य: सन्तापहरण हृदयाह्नादकारणम् । अदृष्ट्वा तत्कथं स्थातुं शक्नुयां वेङ्कटेश्वर ! ।। १६ ।। त्वदाय दशन्न पुण्य ममाद्दश्य प्रधानतः ।। अन्यच्च किंचिद्वक्ष्यामि श्रूयतां पुरुषोत्तम ! ।। १७ ।। भगवान बोले- हे कमलासन ! हे ब्रह्मन ! आप लोगों को उस रावण से भय न हो । हमें आप लोगों की गति हैं, आप लोगों को हमने अभयदान दिया ही है । बहुत जल्द ही लोक कण्टक, क्रूर रावण का सबन्धु तथा सरथ अवश्य बध करूंगा, इसमें संशय नहीं है ! इस प्रकार श्री ब्रह्माजी को समझाकर तपोधन श्री अगस्त्य जी से कहने लगे । हे महामुनि अगस्त्य जी ! आपका स्वागत करता हूँ । कृपया आप अपना कार्य प्रकट करें । यह सुनकर परम पविन्न मुनिवर श्री अगस्त्य जी भगवान विष्णु से कहने लगे कि हे वेङ्कटेश ! मन्द-मन्द मुसकछनयुक्त, मनोहर, सदा संताप को हरण करनेवाले, हृदय को आनन्दित करनेवाले आपके कमल-वदन, बिना देखे हम लोग किस प्रकार रह सकते हैं । विशेषकर आपके पुण्य-दर्शल ही हमारे उद्देश्य होते हैं तथापि मैं कुछ और निवेदन करता हूँ, कृपया आप सुने । (१२-१७) असुराः केचिदुद्भूताः श्रीशैलस्य समीपतः वरदानोद्धताः सर्वे बाधन्ते प्राणिनः सदा ।। १८ ।। सत्यत्र लव सान्निध्ये देशपीडा’ कथं भवेत ? । विषयोऽयं त्वदीयस्तु बालवृद्धद्विजाकुलः ।। १९ ।। दस्युभिः पीड्यमानश्चदुपेक्षाविषयः कथम् ? दुष्टानां निग्रहः कार्यः शिष्टानां रक्षणं तथा ।। २० ।।