पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/१४२

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

124 भवद्देशजनाः सर्वे नीरोगा निरुपद्रवाः । दीर्धायुषस्तथा सर्वे श्रीमन्तः पुत्रपौत्रिणः ।। २१ ।। निर्मत्सरा भवेयुश्च भवदीयकटाक्षतः । वरमेतद्देहि देव ममावश्यं श्रियःपते' । इति पृष्टः पुनः प्राह परमात्मा सनातन ।। २२ ।। श्रीशैल के निकट अनेक राक्षस उत्इन्न हो गये हैं। वे सब वरदान पाकर मदोन्मत्त हो, प्राणियों को सदा पीडा दे रहे हैं। किन्तु आपके यहाँ होते हुए किस तरह देश पीडा हो सकती है । बाल, वृद्ध ब्राह्मणादि से व्याप्त आपका यह देश दुष्ट लोगों से पीडित हो रहा हैं, फिर भी आप उपेक्षा क्यों करते हैं । अत एव दुष्टों का शासन तथा सज्जनों की रक्षा करनी चाहिये। आपकी कृपा से आपके देशवासी सब लोग नीरोग, निरुपद्रव, दीघर्षायु, धनवान धन, धान्यसम्पन्न, पुत्र, पौत्रों की वृद्धिसहित और निर्वेर हो । हे श्रीपति ! हमको ऐसा ही वरदान अवश्य दीजिये । यह पूछने पर सनातन परमात्मा ने कहा । (१८-२२) श्रीभगवानुवाच 'दत्तमेतद्वरं चाद्य मया मुनिवरोत्तम । हनिष्ये सर्वदुष्टांश्च करिष्ये निरुपद्रवम् ।। २३ ।। आरोग्यं सम्पदं दास्ये सन्ततीश्च शतायुषः । दास्याम सवदा तषामताद्वषयवासनाम् ।। २४ ।। अयाचितं च यच्चान्यत्कांक्षितं तद्ददामि वः । इति दत्वा वरं सम्यङ्मुनये कमलापतिः ।। २५ ।। सनकादीनुवाचेदं ‘स्वागतं भवतामिति । इति पृष्टाः पुनः प्रोचुर्योगिनस्तं रमापतिम् ।। २६ ।। श्रीभगवान बोले-हे मुनिश्रेष्ठ, यह वरदान मैंने अब आप कोप्रदान िकया। सब दुष्टों को मारकर सारे संसार को मैं अवश्य निरुपद्रव कर दूंगा। आरीग्य