125 सम्पत्ति तथा शतायु, पुद-पौत्रादि सभी कुछ इस देशवासियों को सर्वदा प्रदान करूंगा । आप लोगों की अन्यान्य जितनी अभिलाषायें , उन सबों के अयाचित होने पर भी मैं दूंगा ! इस प्रकार कमलापति भगवान ने मुनि को दर प्रदानकर सनकादिकों से भी कहा कि आपका स्वागत है। इस प्रकार भगवान से कुशल-प्रश्न पूछने पर योगिलोग कहने लगे । (२३-२६) ९ 'स्वामिन्नियं पुण्यभूमिस्तपः सिध्यति शीघ्रतः । किंतु बाधा च महता दुःसहा कलहार्थिनाम् ।। २७ ।। निबधं कुर्विमं देशं शीघ्र शेषगिरीश्वर । त्यक्त्वा वैकुण्ठमस्मिन् हि स्थीयसे पर्वतोत्तमे ।। २८ ।। त्वमत्र वेङ्कटाधीश ! स्थित्वापि प्राणिसौख्यदः । अदृश्यस्सर्वभूतैश्चेत्तावता किं प्रयोजनम् ? ।। २९ ।। स्थातव्यं हि त्वया तात सर्वप्रत्यक्षगोचरम् । इदमेव हरे स्वामिन्परमं नः प्रयोजनम्' ।। ३० ।। एवमभ्यर्थितः श्रीशः सनकादितपोधनैः । तथैव कुर्वे योगीन्द्राः इति चोक्त्वा मुनिस्तदा ३१ प्राह चेन्द्रं वचो विष्णुः 'किं ते कार्य वदेति च । इति पृष्टः पुनः प्राह देवेन्द्रो विष्णुमव्ययम् ।। ३२ ।। हे स्वामिन, यह यद्यपि परम पुण्यभूमि है और यहाँ तपस्या अति शीघ्र सिद्ध होती है, किन्तु कलहप्रिय लोगों द्वारा यहाँ दुस्सह बाधा पहुँची है । अत एव हे शेषाद्रीश ! इस पुण्यभूमि को बाधारहित कर दीजिए। हे वेङ्कटाधीश ! वैकुण्ठधाम को छोड़कर इस उत्तम पर्वतपरप्राणियों को आनन्द देने के लिए रहते हुए भी आप अदृश्य होकर ही रहते हैं, तो इसमें क्या प्रयोजन । आपको सब के दृष्टिगोवर होकर रहना चाहिए। हे प्रभो ! हम लोगों को यही आन्तरिक अभिलाषा है। इस तरह सनकादि तपोधन ऋषियों से प्रार्थित हो, भगवान ने
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