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126 “हे योगीन्द्रो ! ऐसा ही होगा" ऐसा वहकर इन्द्र से कहा कि आपका क्या उद्देश्य है कहिए! विष्णु के पूछने पर देवेन्द्र ने उस अव्यक्त विष्णुभगवान से कहना आरम्भ किया । (२७-३२) स्वामिन्नच्युत गोविन्द रावणेन दुरात्मना । पीडिताश्च वयं सर्वे स्थानात्स्थानं भ्रमामहे' ।। ३३ ।। इत्युक्तः प्राह देवोऽपि देवेन्द्रं कमलापतिः । स्वस्थाभवत दवाश्च सत्र यूय गतज्वराः ।। ३४ !। हत एव दुरात्मा च रावणो लोककण्टकः । अचिरात्तं वधिष्यामि सत्यमित्यवधार्यताम्' ।। ३५ ।। हे अच्युत! हे गोविन्द!! दुरात्मा रावण से हम सब लोग पीडित होकर , एक स्थान से दूसरे स्थान में मारे-मारे फिरते हैं। इन्द्र के इस प्रकार कहने पर कमलापति ने देवेन्द्र से कहा कि आप लोग निर्भय होकर शान्त होवें । ऐसा समझिये कि लोक-कण्टक, दुरात्मा रावण मर ही चुका । मैं उसे अति शीघ्र मारूंगा । इस बात को सत्य समक्षिये । शङ्करस्य शेषाचवलाग्नेयदिगचस्थानप्राप्तिः । इत्युक्त्वा कमलानाथः प्राहेशानं शुचिस्मितः । 'किमागमनकार्य ते वद शङ्कर सत्वरम्' ।। ३६ ।। इति पृष्टः शिवः प्राह ‘स्वामि'न्नित्यच्युतं वचः । (३३-३५) ऐसा कहकर कमलापति ने हंसते हुए महादेवजी से कहा-हे शङ्करजी ! आप अपने सुभागमन का कारण शीघ्र बतावें । यह सुनकर श्री शंकरजी भगवान से सार्थक बचन कहने लगे । (३६) 'स्वामिंस्त्वया सदा यत्र स्थीयते वेङ्कटेश्वर ! ।। ३७ ।। तत्रैव देव स्थातव्यं मया वृषगिरीश्वर'। इति पृष्टः पुनः प्राह नीलमेघसमद्युतिः ।। ३८ ।।