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इत्युक्तः सोऽथ राजेन्द्रो बभूव पुलकाङ्कितः । स्तुत्वा नत्वा तु बहुधा देवदेवं रमापतिम् ।। ५२ ।। प्रदक्षिणं ततः कृत्वा पुनः स्तुत्वा प्रणम्य च । आमन्त्र्य शेषशैलेन्द्रनिलयं सपुरोहितः । ययौ दशरथः श्रीमानयोध्यां सह बन्धुभिः । ! ५३ इतना कहने पर पापनाशक भगवान ने कहा - हे राजन ! मैं सुम्हारी भक्ति तथा चतुलॉकी स्तुति से परम प्रसन्न हुआ, और सन्तुष्ट होकर तुमको उत्तम वरदान देता हूँ । हे राजन ! तुमने जो प्रीति से मेरी चार श्लोकों द्वारा स्तुति की है, इसलिए तुमको प्रभावशाली, परम बलवान और विख्यात तथा मेरे समान पराक्रमी और तेजशाली चार पुत्र दे चुका अतः तुभ को अयोध्या बाकर श्रद्धा पूर्वक यज्ञ करना चाहिये । यह वचन सुन राजा परम पुलकित हुए । देवाधिदेव विष्णु की प्रदक्षिणा स्तुति, तया नभस्कार कर, पुन: स्तुति तथा प्रणाम करके श्रीवेङ्कटेश भगवान की आज्ञा ले श्री वशिष्ठ महर्षि समेत सभी बान्धवों के साथ अयोध्या चले गये । 17 इति श्रीवाराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये ब्रह्मादीन्प्रति भगवत्कृत कुशलानुयोगादिवर्णनं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायोऽत्र सप्तदशः । (४९५३)