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130 अष्टादशोऽध्याय : चतुर्मुखकृतप्रार्थना सूत उवाच : इति दत्वा वरं तस्मै नृपाय कमलापतिः । कमलासनमाहूय वचनं चेदमब्रवीत् ।। १ ।। “ब्रह्मन्कालस्त्वतिक्रान्तः किमर्थ स्थीयते त्वया । किमभीष्टं वद क्षिप्र सत्यं दास्यामि तद्वरम्' ।। २ ।। अष्टादश अध्याय में, कमलापति भगवान । ब्रहमासह सम्मति तथा लोकानुग्रह दान ।। १ ।। महिमास्वामी तीर्थ की, असुर-नाश हित चक्र । प्रेषण वेंकटगिरि निकट, शान्ति प्रचारण शक्र ।। २ ।। पुनि ब्रह्मा याचन प्रभुर्हि, उत्सव वेंकट नाथ । समारोह अगणित अकथ, नृप ऋषि निर्जर साथ ।। ३ ।। ब्रह्माजी की प्रार्थना श्री सूतजी बोले-इस प्रकार राजा को वरदान देने के बाद कमलापति भगवान श्री झहमाजी को बुलाकर कहने लगे कि हे ब्रह्ममाजी ! आप का समय तो बहुत व्यतीत हुआ, अब आप क्यों ठहरे हुए हैं? कहिए, आप का क्या अभिलाषा है? मैं अत्यन्त शीघ्र उस वरदान की दूंगा । (१-२) इति पृष्टः पुनः प्राह ब्रह्मा लोकपितामहः। यदि दास्यसि विश्वेश ममाभीष्टं रमापते ! ।। ३ ।। त्वमेवम्भूत एवात्र सर्वप्रत्यक्षगोचरः । केवलं दर्शनादेव सर्वेषां सर्वदः सदा ।। ४ ।।