पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/१४९

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

131 भगवन्नर्हसि स्थातुं लोकानुग्रहकाम्यया । कलौ युगे जना: सर्वे शिश्नोदरपरायणाः ।। ५ ।। न जानन्ति नरा धर्ममधर्म वाऽपि भूतले । प्रायशो दुर्बलाः सर्वे रोगिणः काममोहिताः ।। ६ ।। पशुप्राया मनुष्या हि न जानन्त्यात्मनो हितम् । प्रायशः पापिनामेव युगे जन्म कलौ हरे ।। ७ ।। क्षुत्तृष्णोपहताः सर्वे न त्वां जानन्ति किञ्चन । ते यद्युपेक्षिताः सर्वे नरका रौरवादयः ।। ८ ।। न पर्याप्ताः पुनः सृज्या नरकास्ते सहस्रधा । भवेयुर्वेङ्कटाधीश दयालोलहृदम्बुज ! ।। ९ ।। तेषामनुग्रहार्थाय स्थातव्यं भवता हरे !' । लोकपितामह ब्रह्मा यह सुनकर बोले-हे विश्वेश! आप यदि मुझ यभीष्ट वरदान देना चाहते हैं, तो आप ऐसे ही दर्शनद्वारा सभी लोगों के सब तरह के मनोरयों को पूरा करते हुए, सम्पूर्ण संसार की हित कामना से सदा दृष्टि गोचर रहा करें । हे नारायण ! कलियुग में जितने मनुष्य है, सब इन्द्रिथ और पेट परायण होकर संसार में धर्म या अधर्म क्या है, यह कुछ भी नहीं समझते हैं। प्राय: सभी दुर्बल, रोगी तथा कामी होते हैं। वे पशु के समान अपने हिताहित का ज्ञान भी नहीं रखते हैं। यदि आप उनकी उपेक्षा करेंगे, तो सभी रौरवादि नरक उनकेलिये पर्याप्त नहीं होंगे और भी हजारों नरक बनाने पडेंगे। हे भगवन वेङ्कटाधीश ! दयार्दहृदय ! उन प्राणियों पर दया करने केलिए, आपको इसी पर्वतपर निवास करना चाहिए । ब्रह्मणाभ्यर्थितस्त्वेवं कृपानिधिरुवाच ह ।। १० ।। ब्रह्मन्नभ्यर्थितं त्वेतन्महृद्वरमनुत्तमम् । सर्वजीवदयालुत्वमहो तव चतुर्मुख ! ।। ११ ।।