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135 हिंसक धन हारक, देश में उपद्रव करनेवाले सभी दुष्ट चोरों को, जो यहाँ हो जंगल, पहाड, कुआँ, कंदरा आदि में इस पर्वत के चतुर्दिक जा, उन्हें भस्मकर, तथा सारा देशा उपद्रव रहित करके सब जीवों की रक्षा की यवस्या कर पुनः मेरे पास लौट आओ । यह आज्ञा पाकर चक्रराज सुदर्शन तुरन्त उस पर्वत से निकल कर सब दुर्जेय दुष्टों तथा देश में बाधा पहुँचानेवाले दैत्य एवं अन्यान्य उपद्रवियों को निश्शेष एवं भस्मसात करके सब के देखते-देखते श्री मगवान के निकट आ उपस्थित हुझा । (३१) सन्निधौ तत्समागत्य व्यजिज्ञपदिदं वचः । 'निहता दुष्टदैत्यास्ते प्रतापाच्चक्रिणस्तव' ।। ३२ ।। चक्रराज ने सम्मुख उपस्थित होकर निवेदन किया-हे भगवान चक्रधारी ! आपके प्रताप से सब दैत्व विनष्ट हो गये । (३२) इति तस्मिन्समायाते चक्रराजे हरिः स्वयम् । पुनराह सुरश्रेष्ठं 'कर्तव्यं किमितः प्रभो ! ।। ३३ ।। इस प्रकार वक्रराज के कृतकार्य होकर आ जाने पर इरि भगवान ने ब्रह्माजी से कह-अब और क्या चाहिये, आप बतलावें । (३३) वदेति पृष्टः प्राहाऽसौ ब्रह्मा हर्षसमाकुलः । ‘बिभेमि वक्तुं देवेश प्रसन्नमुखपङ्कज' ।। ३४ ।। ऐसा पूछने पर ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर बोले- हे देवादिदेव ! प्रसन्न कमल मुखवाले, मैं पुनः कहने से डरता हूँ। (३४) इत्युक्तोऽथ हरिः प्राह 'मा भैषीस्त्वं वदस्व तत्' । इत्याश्वस्तः पुनः प्राह ब्रह्मा ब्रह्मविदग्रणीः ।। ३५ ।। इस पर भगवान ने आश्वासन देते हुए कहा कि डरने की कोई बात नहीं है, जो चाहिए सो कहिए । ऐसा आश्वासन पाने पर ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ ब्रह्माजी ने निवेदन किया । (३५)