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139 श्रीब्रह्माजी ने देवाधिदेव का इस प्रकार उत्सव मनाया ; जिसमें गन्धर्वगणों ने सुन्दर-सुन्दर गान गावे तथा अप्सरागणों ने बहुत हाव-भाव के साथ नृत्य किया । वहाँ भेरी, मृदंग, मुरज, पणत, ढाक, सिंह नगाडा, झांझ आदि नाना भांति के वाद्यों ने स्वयं बजकर दशो दिशाओं को गूजा दिया । उस विमान के चारों तरफ़ वीथियाँ प्रकाशमान थीं । विश्वकर्मा स्वसामथ्य प्रकटीकृतवांस्तदा । तुङ्गप्रासादसम्बाधं विचित्रगृहभित्तिकम् ।। ५६ ।। चन्द्रकान्तशिलोपेतं सूर्यकान्तसमन्वितम् । अनेकरत्नखचितं तप्तहाटकनिर्मितम् ।। ५७ ।। तुङ्गध्वजसमोपेतं रत्नतोरणसंयुतम् जलसिक्तं पुष्पकीर्ण दिव्यधूपसुधूपितम् । चकार नगरं तत्र गन्धर्वनगरं यथा ।। ५८ ।। । (५३-५५) उस समय बिश्वकम ने अपनी शक्ति को प्रकट किया । उसने गगन-धुम्बी अट्टालिकायुक्त, चित्र विचित् रंग-रंजित, दीवालों से युक्त, चन्द्रकान्त एवं सूर्यकान्त जटित तथा अन्यान्य रत्नजटित, तपाये हुए सोने के बना ऊँचे-ऊँचे ध्वजा-पताकायुक्त, रत्नजटित तोरणयुक्त, जल सिञ्चत, फूलों से समाकीर्ण दिव्य सुगन्धि युक्त तथा धूप के सौरभ से सुगन्धित गन्धर्व नगरी के समान ही उस नगर को बनाया । (५६-५८) इति श्रीवाराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाझात्म्ये भगवन्तंप्रति चतुर्मुख कृतप्रार्थनादिवर्णनं नाम पञ्चाशोऽध्यायोऽत्र अष्टादशः ।