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भगवान अनेक देव दगों से प्रातःकाल एवं सायं में अन्यान्य ऋचाओं से पूजित हुए। इस प्रकार संसार के उपकारार्थ ब्रह्मा-कल्पित महोत्सव की उस यज्ञशाला में पापहीन योगिणों ने खूव होम किया तथा मनोहर पूर्ण कुम्भों को यथाविधि स्यापित किया । तपस्वी वैखानस गण ने दिक्पालों को विधिवत बलिप्रदान किया । (१०-१२) श्रीनिवासोत्सवदिनं पुण्थं पापप्रणाशनम् । इत्यागता जनाः सव चक्रदर्दानान्यनेकशः ।। १३ ।। अन्नदानं स्वर्णदानं वस्त्रदानं तथैव च । गृहदानं महापुण्यमिति मत्वा महाजनाः ।। १४ ।। श्रीनिवास भगवान के पवित्रोत्सव का दिन परम पुण्य-प्रद तया परम पापनाशक हैं। ऐसा समझकर आये हुए सब लोगों ने अनेक प्रकार से दान किया । महाजनों ने तो महापुण्य भगवान से अन्न-दान ; स्वर्ण-दान, गृह-दान वस्त्र-दान आदि दान किया । (१३-१४) इष्टकादारुभिश्चैव निर्मितं हम्र्यसंयुतम् । ददुः प्रत्येकशो वश्म सोपस्करमलङ्कृतम् ।। १५ ।। राजानः स्थापयामासुविप्रेन्द्रांस्तत्र भूधरे । वैश्यानन्यांश्च मनुजान् स्थापयामास वै विधिः ।। १६ ।। अत्रैव वासः कर्तव्यः सर्वदेति विनिश्चिताः । वासं चक्रुश्च तत्रैव विप्राद्याः मानवाः सदा ।। १७ ।। राजागणों ने ईट; लकड़ी आदि के बने कोठेदार, सजे हुए, सम्मान पूरित कोठरियों से युक्त बड़े-बड़े मकान, महापुण्य समझकर दान किये। उस पर्वतपर ग्राह्मणश्रेष्ठों, क्षत्रियों, वैश्यों और अन्य सब मनुष्यों को. मी ब्रह्माजी ने स्थापित किया । ब्राह्मणादि सभी वर्ण ऐसा निश्चय कर कि इसी जगह निवास किया जाय, उस में वास करने लगे । (१५-१७)