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‘43 एवं श्रीवेङ्कटेशस्य वर्तमाने महोत्सवे । कदाचित्स्यन्दनं दिव्यं नानारत्नविराजितम् ।। १८ ।। तप्तजाम्बूनदमयभुच्छूितध्वजशोभितम् । नानाकुसुममाल्यैश्च मुक्तामाल्यैश्च शोभितम् ।। १९ ।। हैमवस्त्रवितानाढ्यं सिद्धगन्धर्वसेवितम् । विमानं पुष्पकं कात्या स्मारयन्तं मनोहरम् ।। २० ।। रथं त समधिष्ठाय श्रीभूमिसहितः परः । श्रीनिवासः स्फुरद्रत्नकिरीटमकुटोज्ज्वलः ।। २१ ।। ब्रह्मादिदेवबृन्दैश्च सेव्यमानस्तपोधनै । परिक्रम्य महावीथीं राजवीथीं श्रियोज्ज्वलाम् ।। २२ ।। पुनरागत्य तं दिव्यं वितानासनशोभितम् । अस्थानमण्डप तत्र माणस्तम्भशतयुतम् ।। २३ ।। हिरण्मयमधिष्ठाय स्वयम्भुवमकल्मषम् । आहूय वाचा भगवानब्रवीन्मधुरां गिरम् ।। २४ ।। इस प्रकार होते हुए महोत्सव में किसी दिन नाना रत्न विभूषित, दिव्य , गाँगी-जामुनी किया हुआ, ऊँचे-ऊँचे ध्वजादार, मदार आदि भांति-मांति के सुगन्धित फूलों की मालाओं से सुशोभित, सोने के जरीदार वस्त्रों से मण्डित, सिद्ध गन्धर्ब सेवित, शोभा से पुष्पक विमान को याद दिलानेवाले, एक अत्यन्त सुन्दर विमान पर बैठे श्रीभूमि सहित श्रीनिवास भगवान, छिटकती हुई प्रभायुक्त रत्न जटित मुकुट पहने, ब्रह्मादि देवतागण तथा तपस्वी वृन्दों से सेवित, महापथ तथा राज पथ का चक्कर लगाकर, तोरणादि से शोभित सैकड़ों मणि, रत्नादि जटित स्तम्भ लगे हुए, स्वर्णमय दिव्य सभामण्डर पर आकर बैठे हुए, कल्मषरहित ब्रह्माजी को बुलाकर मीठी-मीठी बात कहने लगे । (२२-२४)