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145 श्री भगवान बोले-हे ब्रह्माजी ! आपके महोत्सव तथा आन्तरिक भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । हे देवताओं, मुनियों, राजायण तथा योगिवून्दों ! आप सब प्रेम से सुनें । प्रतिवर्ष इसी मास में कन्या राशि पर सूर्य के आने पर जो कोई यहाँ ब्रह्मकल्पित महोत्सव करता है, वड् संसार में अपने सकल अभीष्ठ तथा भनोरथ प्राप्त हो ब्रह्म लीक में जाता है । जो कोई उस उत्सव के उद्देश्य एवं भगवत सेवा तथा भक्ति के निमित्त निवास करने की इच्छा से शोषाचल जाने के लिए एक डेग भी चलता है, उसका उसी एक डेग के फलस्वरूप मेरा पद प्राप्त होता है । उसके इस लोक नें पशु, पुत्र, पौत्रादि फल तो आनुसंगक रूप से होते हैं। जो कोई ऐसे ब्रह्मकल्पित उत्सव में मेरी सेवा करते हैं उनको सध महीपाल स्नेह से सेवन करते हैं तथा उनकी मनोवाञ्छा पूर्ण किया करते है । उस उत्सव काल में जो कोई 'पानशाला ' बनाता है, उससे मेरा चित्त अत्यन्त प्रसन्न तथा शीतल हो जाता है । उस महोत्सव में अन्नदान का बड़ा भारी फल है । जो कोई अन्नदान करेंगे, उनके सात कुलों तक की अनेकों प्रकार के अन्नादि हम प्रदान करते हैं । वे मेरे प्रदत्त अनेक भोग्द्र तथा अपने अभीप्सित भोगों को मोगकर मध्य में स्वर्ग को भी भोग, अन्त में मेरा पद पाते है। (२५-३३) काणान्धपङ्गमूकानामन्येषां विकलाङ्गिनाम् । अन्नवस्त्रहिरण्यादिदातृणां सम्पदः सदा ।। ३४ ।। अनायासेन सिध्यन्ति मच्छन्दात्प सम्भव ! । ये हि चात्र स्थिति नित्यं वाञ्छन्ति मनुजा भुवि ।। ३५ ।। तेषामिहैव दास्यामि सम्पदं सन्ततिं तथा । तारतम्यवशाद्भक्तेस्तेषां सिध्यन्ति सम्पदः ।। ३६ ।। जननं मरणं येषां स्थितिर्वाऽस्मिन्महीघरे । तेषां मुक्तिः करस्था हि ज्ञानसाध्या हि दुर्लभा ।। ३७ ।। 19 यानि कानि च दानानि सन्ति शास्त्रोदितानि च । तानि सर्वाणि दानानि क्रियमाणानि चेदिह ।। ३८ ।।