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146 ऐहिकं च फलं दत्वा स्वर्गमीप्सितमेव वा मत्पदं च शरीरान्ते ददाम्येषां न संशयः ।। ३९ ।। काना, झन्धा, लंगडा, गूगा तथा अन्यान्य विकलांगों को जो अन्न, वस्त्र, सोना, चांदी आदि देते हैं, उन्हें सर्व सम्पत्तिवाँ अनायास ही मेरी इच्छा से प्राप्त होती हैं। मेरे प्रभाव से उनकी सभी कामनाएँ सिद्ध होती हैं। जो मनुष्य इस स्थान पर निवास करना चाहेंगे, उनको पृथ्वीतल में धन सम्पत्ति पुत्र, पौत्रादि सब कुछ हम प्रदान करेंगे ; परन्तु भक्तों के दर्ज के अनुसार उनकी कामनाओं को सिद्धि होगी । जिनका जन्म, मरण अदवा निवास इस पर्वतपर होगा, उनकी दुर्लभ तथा ज्ञान साध्य मुक्ति भी हस्तगत हो जाती है। जितने प्रकार के शास्त्रीं में दान लिखे गये हैं, ब सब यहाँ किया जाय, तो ऐहिक तथा स्वर्गादि अभीष्ट फल देकर शरीरान्त में उनकी अपना पद भी दूंगा । इसमें संशय नहीं है ! (३४.३९) गिरेश्च परितो भूमौ ग्रामान्वा पत्तनानि वा । करोति श्रद्धया राजा ब्राह्मणो योऽपि कोऽपि वा । ।। ४० ।। स वै राज्यश्रियं भुक्त्वा भुक्त्वा स्वर्गादिकं चिरम् । भत्सायज्यं व्रजत्येव नात्र कार्या विचारणा ।। ४१ ।। जो कोई राजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा और कोई इस पर्वत के चतुर्दिक ग्राम, नगर आदि बनावेगा, या बनवावेगा, वह यहाँ राज-सुख भोगने के बाद पर लोक में बत काल तक स्वर्ग-सुख भोगकर पुनः मेरी सायुज्य मुक्ति पावेगा। इसमें कुछ संशय नहीं है। (४०-४१) पुण्यक्षत्रामद भूमौ स्थातव्यं हि सदाऽऽत्र तु । इति बुध्यात्र वसतां गृहक्षेत्रादिकं तु ये ।। ४२ ।। ददतीह नरास्ते वै लब्ध्वा वासफलानि च । प्राप्नुवन्ति पुनश्चैव मामकं च पदं धृवम् ।। ४३ ।। ऐसा विचार कर कि यह भूमितल पर पुण्यक्षेत्र है, यहाँ सवा निवास करना सर्वथा उचित है। जो कोई यहाँ निवास करनेवालों को गृह क्षेत्रादि देते